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________________ ३०५ उपदेश-प्रासाद - भाग १ निवृत्त होता है, कृषि आदि आरंभ में त्रस का घात होने से, अन्यथा देह, स्वजन निर्वाह आदि के अभाव हो जाने से उससे आरंभ के कारण हिंसा होती हैं, इस प्रकार से पुनः अर्ध चला गया, उससे दस के भाग से पाँच हुए । संकल्प से भी दो प्रकार से हैं- सापराध और निरपराध । वहाँ निरपराध से निवृत्ति हैं । सापराध में तो बड़े और छोटे का चिन्तन, जैसे कि बड़ा अपराध है अथवा छोटा है, इस प्रकार से पुनः अर्ध के चले जाने से पांच के भाग में ढाई हुए । निरपराध का वध भी दो प्रकार से है- सापेक्ष और निरपेक्ष । वहाँ निरपेक्ष से निवृत्ति हैं न कि सापेक्ष से । निरपराध में भी वहन कीये जाते भैंस, घोडे आदि में और पाठ आदि में प्रमत्त पुत्रादि में सापेक्षपने से वध, बन्धनादि करने से, उससे पुनः अर्ध के चले जाने से श्रावक की जीव-दया ढाई के भाग से सवा स्थित हुई । इस प्रकार से प्रायः कर श्रावक का प्रथम अणुव्रत है । इस व्रत के पाँच अतिचार छोडने योग्य हैं, वे कहें जाते हैं क्रोध से बन्ध, छवि-छेदन, अधिक भार का अध्यारोपण, प्रहार और अन्नादि का रोध, अहिंसा के पाँच अतिचार कहें गये है। ___ बन्ध-रस्सी आदि से गाय, मनुष्यादि का नियंत्रण, स्वपुत्रादियों का भी विनय के ग्रहण के लिए किया जाता हैं । इसलिए ही क्रोध से- प्रबल कषाय से जो वध है, वह प्रथम अतिचार हैं। छविशरीर की त्वचा, उसका छेद, कान आदि का काटना, क्रोध से अनुवर्तन करता है, वह द्वितीय अतिचार हैं । क्रोध से अथवा लोभ से गाय, ऊँट, गधा, मनुष्यादि के खंधे पर अथवा पीठ के ऊपर अधिक-वहन करने में अशक्य ऐसे भार का आरोपण, वह तृतीय अतिचार हैं । क्रोध आदि से प्रहार-वध, लकड़ी आदि से निर्दयता से मारना, यह चतुर्थ अतिचार हैं । क्रोध आदि से अन्नादि का रोध
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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