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________________ २६२ उपदेश-प्रासाद - भाग १ वान् उनसे युक्त होता हैं, इस प्रकार से परमात्मा ने कहा हैं। केवल सुनने की इच्छा वह शुश्रूषा है और उसके बिना श्रवण आदि गुण नहीं होतें हैं । आकर्णन अर्थात् श्रवण-सुनना, यह बड़े गुण के लिए होता है, क्योंकि योगबिन्दु में जैसे कि क्षार पानी के त्याग से और मधुर पानी के योग से बीज अंकुर को उत्पन्न करता हैं, वैसे ही तत्त्व के श्रवण से मनुष्य उन्नति को प्राप्त करता हैं । यहाँ पर खारे पानी के समान समस्त ही भव-योग माना गया है और मधुर पानी के योग के समान तत्त्वश्रुति (श्रवण) मानी गयी है। . तीसरा गुण ग्रहण अर्थात् शास्त्र का उपादान, धारण अर्थात् अविस्मरण, ऊह-सामान्य ज्ञान, अपोह-विशेष ज्ञान, अर्थ विज्ञान, ऊहापोह के योग से मोह, संदेह और विपर्यास को दूर करने से ज्ञान, इस प्रकार से यह तत्त्वज्ञान ऐसा ही है, यह निश्चय हैं । सर्व पदार्थों के परमार्थ के पर्यालोचन में परत्व होने के कारण से बुद्धि के इन आठ गुणों से युक्त दर्शन होता हैं। इस विषय में सुबुद्धिमंत्री का वृत्तांत हैं चंपा में जितशत्रु राजा था और सम्यग् प्रकार से जिनमत को जाननेवाला उसका सुबुद्धि नामक मंत्री था । एक बार मधुर और दिव्य रसोई कराकर और बहुत सामन्तों के साथ में भोजन के रस में आसक्त हुआ राजा- अहो ! रस, अहो ! गंध इत्यादि वाक्यों से प्रशंसा करने लगा । सुबुद्धि के बिना अन्य सभी ने भी वैसे ही प्रशंसा की । तब राजा ने मंत्री से पूछा कि- तुम किस लिए प्रशंसा नहीं कर रहे हो ? उसने कहा कि- हे राजन् ! शुभाशुभ वस्तुओं में मुझे विस्मय नहीं हैं, क्योंकि पुद्गल सुगंधि - दुर्गंधि, सुरसवाले भी विरसवालें होतें हैं अथवा विपरीतपने से भी होतें है,
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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