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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २८५ साठवाँ व्याख्यान अब यह दीपक सम्यक्त्व इस प्रकार से हैंमिथ्यादृष्टि अथवा अभव्य स्वयं धर्म कथा आदि से दूसरों को बोधित करता है, इस प्रकार से यह दीपक दर्शन होता है। यहाँ पर यह भावना हैं - अनादि - सान्त भांगा- वाला प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि किसी पुण्य से श्रावक - कुल में उत्पन्न होता हैं । वहाँ पर कुलाचारता से गुरु आदि सामग्री को प्राप्त कर महत्त्व के अर्थीपने से अथवा मत्सर, अहंकार, हठ आदि से जिनबिंब, मंदिर आदि श्रावकोचित सुकृतों को करता हैं । परन्तु देव आदि स्वरूप को नहीं पहचानने से और ग्रन्थि का भेदन नहीं करने से वह प्राणी सम्यग् भाव के बिना ही अनंत बार सुकृतों को करता हैं । परंतु उसे करने से कोई विशिष्टतर लाभ नहीं होता, जो कि आगम में कहा गया हैं कि - प्रायः कर जीव ने असमंजस की वृत्ति से अनंत देव मंदिर और प्रतिमाओं का निर्माण कराया हैं, किन्तु दर्शन लेश भी शुद्ध नहीं हुआ । इस प्रकार से दर्शन - रत्नाकर में हैं । तथा अनादि - अनन्त भांगे से आद्य गुणस्थानवर्ती अभव्य बहुत बार सामग्री के सद्भाव होने पर भी भव-मध्य में कभी-भी सास्वादन स्वभाव को प्राप्त नहीं करता । त्रिभुवन को शरण देनेवालें ने जो कहा हैं कि काल में सुपात्र दान, विशुद्ध सम्यक्त्व, बोधि-लाभ और अंत में समाधि मरण को अभव्य जीव प्राप्त नहीं करतें । इन्द्रत्व, चक्रीत्व, पाँच अनुत्तर देव विमान में वास और लोकांतिक देवत्व को अभव्य जीव प्राप्त नहीं करतें । शलाका पुरुषपना, नारदपना, वायस्त्रिंश, पूर्वधर, इंद्र, केवली से दीक्षितपना, सास्वादन, यक्षिनी
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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