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________________ उपदेश-प्रासाद २८२ कलावान् पुरुष स्व अथवा पर भी सभी को बहुमान के योग्य होता है और विशेष कर राजा के अत्यंत महिमा से आप्त किया गया बहुमान के योग्य होता हैं । राजा ने सत्कार कर उसे कहा कि - हे कला-कुशल | तुम गरुड़ के समान ही आकाश मार्ग में गमन करनेवाले मेरे योग्य कमल के आकारवाले भुवन का निर्माण करो। उसमें शत दल हो और उनमें मेरे पुत्रों के योग्य मंदिर हो, कर्णिका के स्थान में मेरे योग्य भुवन हो और उसके समीप में अमात्य आदि मंत्री वर्ग का स्थल हो, तुम इस प्रकार के देव विमान का निर्माण करो । जीवित- आशा से युक्त और गूढ - आशयवालें उसने भी स्वामी का आदेश प्रमाण हैं इस प्रकार से कहकर स्व-इच्छित की सिद्धि के लिए बाह्य से ही राजा के चित्त का आह्लादक कमल-गृह का निर्माण किया । I - I कोकास ने गुप्त रीति से काकजंघ से कहा कि- हे स्वामी ! आप चिन्ता को छोड़कर जिन-ध्यान में निमग्न हो। मैं अमुक दिन में शत्रु को विडंबना पद पर आरोपण करूँगा । कोकास ने गुप्त वृत्ति से स्व राजा के पुत्र को सैन्य सहित लाया । उसे समीप में आया जानकर उसी दिन शुभ मुहूर्त आदि कर कोकास ने सपरिवार राजा कनकप्रभ को उसमें बैठाया । गर्व से सौधर्म भुवन का तिरस्कार करते हुए राजा भी हर्षित हुआ । - भाग १ इस ओर कोकास ने उल्लास पूर्वक कहा कि - हे स्वामी ! आप सपरीवार स्व-स्व स्थान के ऊपर बैठो। मैं कील के प्रयोग से तत्काल ही आकाश के कौतुक को दिखाता हूँ । भोजन के लिए भूख से पीड़ित रंक के समान वें भी कौतुक को देखने के लिए स्व-स्व स्थल पर बैठें । कोकास स्वयं ही किसी बहाने से उस गृह से बाहर निकलकर कहने लगा कि - रे मूढों ! तुम मेरे प्रभु के विडंबना के फल I
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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