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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २६६ सदृश संपत्तियाँ भोगी गयी, उससे क्या हुआ ? स्व-धनों के द्वारा प्रियों को संतुष्ट किया, उससे क्या हुआ ? शत्रुओं के सिर के ऊपर पैर दिया, उससे क्या हुआ ? प्राणियों के देहों से कल्प पर्यंत स्थित हुआ, उससे क्या हुआ ? इस प्रकार से स्वप्न और इन्द्रजाल के समान तथा परमार्थ से शून्य कुछ-भी साधन-साध्य का समूह नहीं हो जो अत्यंत निर्वृति करनेवाला और बाधा रहित हो, उससे हे जनों । यदि चेतना है तो तुम ब्रह्म की वांछा करो। इसलिए सर्वसुख, तत्त्व से दुःख ही है और जो महाभाष्य में कहा गया है कि- दुःख के प्रतिकार से चिकित्सा के समान विषयसुख दुःख ही है और वह उपचार से सुख हैं तथा उसके बिना उपचार नहीं होता हैं। विषय-सुख तत्त्व से दुःख ही हैं, जैसे कि-दुःख के प्रतिकार रूप में होने से कुष्ठ, बवासीर रोग में क्वाथ का पान, छेदन, डंभन आदि चिकित्सा के समान है । लोक में जो वहाँ पर सुख का देखाव है, वह उपचार से ही है और अपारमार्थिक के बिना कहीं पर भी उपचार का प्रवर्तन नहीं होता है, जैसे कि- बालक आदि में सिंह आदि उपचार के समान । उस कारण से मोक्ष का सौख्य निरुपम है, यह स्थित हुआ है । तथा हे प्रभास ! वेद में भी संसार और मोक्ष स्वरूप का प्रतिपादन किया हुआ है, जैसे कि-सशरीरवाले को प्रियअप्रिय की अपहति नहीं हैं । अशरीरीपने से रहे हुए को प्रिय-अप्रिय स्पर्श नहीं करतें हैं । न- यह निपातन निषेध अर्थ में हैं । हि, वै-यह दोनों भी निपात है और 'हि' शब्द का अर्थ होने से जिस कारण से अर्थ में हैं । शरीर के साथ रहता है वह सशरीरवाला जीव है, उसे ! प्रियअप्रिय का अर्थात् सुख-दुःख का, अपहति अर्थात् विघात, अन्त हैं । किन्तु अशरीरी को नहीं हैं । उससे अशरीर अर्थात् शरीर रहित,
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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