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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २४१ लिया है, अहो ! मान को पराजित किया है, अहो ! तुमने माया का तिरस्कार किया है, अहो ! तुमने लोभ को वश कर लिया हैं । इस तरह से बहुत प्रकार से स्तुति कर इन्द्र स्वर्ग में गया । मुनि ने क्रम से केवलज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष को साधा । - जिसने इन्द्र की आज्ञा से भी धर्म को नहीं छोड़ा था, महावीर ने जिनकी शास्त्र में प्रशंसा की हैं, वें प्रत्येकबुद्ध नमिराज साधु ही मुझे सौख्यप्रद हो । इस प्रकार संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश - प्रासाद की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में बावनवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ । त्रेपनवाँ व्याख्यान - अब बलाभियोग से - इस प्रकार का आगार कहा जाता हैबहुतों के हठ वाद से अथवा बल से, त्याग कीये हुए का सेवन करना, यह बलाभियोग कहा जाता है, ये छह (आगार) द्वार के रूप में माने गये हैं । उत्सर्ग पक्ष में रहे हुए कोई पर-बल से भी स्व- व्रत को नहीं छोड़तें हैं, इस विषय में यह सुदर्शन का प्रबन्ध हैं चंपा में ऋषभदास श्रेष्ठी था और उसकी पत्नी सुशीलवाली अर्हद्दासी थी । एक दिन माघ मास में सुभग नामक उनका भैंसों का पालक श्रेष्ठी की भैंसों को चराकर घर पर आता हुआ सायंकाल में नहीं ढंके हुए, प्रतिमा में रहे हुए और शीत से आर्त्त मुनि को मार्ग में देखकर और उनकी प्रशंसा कर, घर पर आकर, रात को व्यतीत कर, समय पर उठकर, भैंसों को आगे कर जाते हुए वैसे स्थित मुनि को
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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