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________________ २२२ उपदेश-प्रासाद - भाग १ में जीव-वध किया जायगा । उस स्वर्ण-आभरण से क्या करें जिससे कान तूटता हो । दूसरी बात यह हैं - हमेशा जीवन, बल और आरोग्य की इच्छा करनेवाला राजा स्वयं ही हिंसा न करें, और प्रवृत्त हुए का निवारण करें। राजा को निश्चल जानकर मंत्रियों ने समस्त नागरिकों को बुलाकर कहा कि- हे लोगों ! तुम सुनो । जब राजा मनुष्य-वध करेगा, तभी गोपुर स्थिर होगा अन्यथा नहीं । राजा ने मुझ से इसप्रकार से कहा है कि - मैं जीव वध नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा और उसकी अनुमोदना भी नहीं करूँगा, इस प्रकार से कहते है, अतः तुम को जो योग्य लगे वह करो । तब महाजनों ने आकर के राजा के आगे कहा कि- हे स्वामी ! सब हमारे द्वारा किया जायगा आप मौन से रहो । राजा ने कहा कि- प्रजा जब पाप करती हैं, तब मुझे भी छडे अंश में पाप और पुण्य आता हैं । जो कि कहा गया है जैसे कि सद्-गुणी राजा पुण्य आदि सुकर्म करनेवालों का षष्ठांश-भागी होता हैं, वैसे ही पाप-वृत्तिवाला राजा पाप आदि कुकर्म करनेवालों का छट्टे अंश का भागी होता हैं । फिर से भी महाजन ने कहा कि- पाप का भाग हमारा हो । राजा ने उसे बड़े कष्ट से स्वीकार किया । महाजन ने स्व-स्व गृह से धन को एकत्रित कर उसका स्वर्णमय पुरुष का निर्माण कराया । पश्चात् उस पुरुष को बैल-गाडी में रखकर नगर-मध्य में घोषणा की कि- यदि माता अपने हाथों से स्व-पुत्र को विष देती हैं और पिता उस पुत्र का गलामोटन करता हैं, तो उन दोनों को स्वर्णमय पुरुष और करोड़ द्रव्य दिया जायगा । उस नगर में महा-दरिद्र वरदत्त नामक ब्राह्मण और उसकी भार्या रुद्रदत्ता हैं, वह अत्यंत निष्करुण थी । उन दोनों को सात पुत्र हैं । ढोल को सुनकर वरदत्त ने स्व-भार्या से पूछा कि-हे
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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