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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २१६ गैरिक ने-तुम धृष्ट हो इस प्रकार अंगुलि से नाक-चेष्टा की । श्रेष्ठी ने सोचा कि- यदि मैंने पूर्व में ही दीक्षा ग्रहण की होती तो यह पराभव नहीं करता, इस प्रकार से सोचकर एक हजार और आठ वणिक्पुत्रों के साथ में चारित्र ग्रहण कर और द्वादशांगी पढकर बारह वर्ष की पर्यायवाला सौधर्मेन्द्र हुआ । वह गैरिक भी निज धर्म से सौधर्मेन्द्र का वाहन ऐरावण हाथी हुआ । यह कार्तिक है, इस प्रकार से जानकर पलायन करते हुए उस ऐरावण को पकड़कर इन्द्र उसके शीर्ष पर चढ़ा । ऐरावण ने इन्द्र को डराने के लिए दो रूपकीये । इन्द्र ने भी वैसा ही किया । इस प्रकार से उन दोनों ने चार रूप कीये । इन्द्र ने अवधि ज्ञान से उसके से स्वरूप को जानकर उसकी तर्जना की । अपमान करने पर हाथी ने स्वभाविक रूप किया । इन्द्र वहाँ से च्यवकर महाविदेह में सिद्ध होगा । विशेष से इसकी व्याख्या पंचम अंग से जानी जाय। इधर राजा की आज्ञा होने पर भी कोई अपने व्रत को नहीं छोड़ते हैं । इस विषय में कोशा का वृत्तांत हैं, जैसे कि पाटलीपुर में निरुपम रूप और लावण्य तथा कला-कौशल आदि गुण रूपी मणि के लिए भंडार के समान कोशा नामक वेश्या थी। उसके प्रतिबोध के लिए गुरु के आदेश से स्थूलभद्रमुनि ने उसके गृह में चतुर्मास किया था । अनेक हाव-भाव, विभ्रम और विलासों को करने पर भी मुनि ने उनकी अवगणना कर उसे प्रतिबोधित किया। उसने राज-पुरुष के द्वारा छोड़े हुए पुरुष के बिना अन्य पुरुष का नियम ग्रहण किया। इस ओर एक बार उसके व्रत का खंडन करने के लिए नन्दराजा के द्वारा छोड़ा हुआ, रूप से कामदेव सदृश और कामातुर कोई रथकार उसके गृह में आया । उसने कोशा के मनोरंजन के लिए
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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