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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १७५ सुंदर स्त्रियों से घेरा हुआ विष्णु हुआ । चौथे दिन समवसरण में स्थित तीर्थंकर का रूप कर चौथे नगर के द्वार में रहा । फिर भी सुलसा नमस्कार करने के लिए नहीं आयी । तब उसे बुलाने के लिए किसी पुरुष को भेजा । सुलसा ने उस पुरुष से कहा कि- हे भद्र ! यह जिनेश्वर नहीं हैं, कोई कार्पटिक हैं जो पच्चीसवें जिनके नाम से लोगों को ठग रहा हैं । इस प्रकार वह लेश-मात्र भी चलित नही हुई। अंबड़ श्रावक के वेष से युक्त उसके गृह में आकर उसके द्वारा बहुत सन्मान किया गया । उससे कहने लगा कि- हे सुलसे ! तुम पुण्यवती हो क्योंकि परमात्मा स्वयं ने ही मेरे मुख से धर्मलाभ दिया हैं। इस प्रकार से सुनकर और उठकर वह भक्ति से प्रभु की स्तुति करने लगी हे मोह रूपी मल्ल के बल के मर्दन में वीर, हे पाप रूपी कीचड़ के गमन में निर्मल नीर, हे कर्मरूपी धूल के हरण में एक पवन तुल्य, हे वीर ! हे जिनेश्वर-पति ! तुम जीतो। इत्यादि स्तुति करती उस सुलसा की प्रशंसा कर वह स्वस्थान पर चला गया । वह सुलसा शील गुणों से शोभती हुई धर्म की आराधना कर स्वर्ग में गयी । वहाँ से च्यवकर इसी भरत खंड में भावि चौवीसी में निर्मम नामक पंद्रहवें जिनेश्वर होगी। इस प्रकार से श्रीवर्धमान प्रभु से स्थैर्य, औदार्य और महाअर्थता से प्राप्त हुए और तीनों विश्वों को आश्चर्य देनेवाले, पवित्र ऐसे सुलसा के चरित्र को सुनकर हे भव्य-प्राणियों ! तुम भी उस धर्म में स्थिरत्व को प्रख्याति में ले जाओ जिससे कि सम्यक्त्व से विभूषित हुए मोक्ष रूपी लक्ष्मी के आलिंगन से सुख को जान सको । इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में छत्तीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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