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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १४६ उसने वज्रा से कहा- अवश्य ही इस मुर्गे का सिर मुझे दो । किसी प्रकार से उसने भी स्वीकार किया । पश्चात् मुर्गे को मारकर उसे पकाने के लिए अग्नि में डाला । लड़का स्नान के लिए चला गया । इस ओर पुत्र लेख-शाला से आया और उसने भोजन की याचना की । विस्मृति से माता ने उसे वह सिर दिया । बाद में वह पढ़ने के लिए गया । ब्राह्मण लड़का आकर भोजन के लिए बैठा । सिर से रहित माँस को देखकर और वज्रा से पूछकर निर्णय कर उसने कहा- यदि तुम पुत्र को मारकर उसका सिर का मांस मुझे दोगी, तो हम दोनों का प्रेमभंग नहीं होगा । उसने स्वीकार किया । पुत्र की धाय-माता ने उसे सुन लिया । लेखशाला से उस पुत्र को कमर में रखकर और नगर से निकलकर क्रम से धाय-माता पृष्ठचंपा के उद्यान में आयी । इस ओर निःसंतान उस नगर का स्वामी मरण को प्राप्त हुआ । अमात्य आदि के द्वारा कीये गये पाँच दिव्यों से वन में सोते हुए उस बालक को प्रमाणित कर उसका राज्य के ऊपर अभिषेक किया गया । इस ओर काष्ठ श्रेष्ठी घर में आया । चार वस्तुओं को नहीं देखकर उसने तोते से पूछा । तोते ने कहा- मुझे पींजरे से बाहर निकालो, पश्चात् मैं निर्भय होकर समस्त ही कहूँगा । श्रेष्ठी के द्वारा बंधन से मुक्त कीये गये उसने वृक्ष के ऊपर स्थित होकर उससे ब्राह्मण और व्रजा के संबंध के बारे में कहा । उसे सुनकर श्रेष्ठी ने वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की । राजा के भय से ब्राह्मण सहित वज्रा निकलकर भाग्य के योग से पुत्र राज्य के नगर में आयी । भाग्य के योग से काष्ठमुनि भी विहार करते हुए उसी नगर में आये । अकस्मात् ही वज्रा के गृह में आहार के लिए गये । वज्रा उस पति को पहचानकर सोचने लगी- यदि यह मुझे पहचानेगा, तो मेरी निंदा करेगा । भिक्षा के मध्य में अपने आभरण को रखकर वह पूत्कार करने लगी । चोरी
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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