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________________ १४० उपदेश-प्रासाद - भाग १ पुस्तक को अपहरण कर ली और स्तंभ भी मिल गया । सूरि कुमारपुर में गये । वहाँ देवपाल राजा गुरु को नमस्कार कर कहने लगा- मेरे राज्य को ग्रहण करने की इच्छावाले सीमा के राजा आ रहे हैं। यदि आप मुझ पर कृपा करो तो राज्य स्थिर होगा। हाँ इस प्रकार से कहकर आचार्य ने विद्या से युद्ध में शत्रु बल को भग्न किया । उससे राजा जैन और सूरि में एकान्त भक्त हुआ । प्रति-दिन राजा के आग्रह से सुखासन में बैठे हुए और स्तुति-पाठकों के द्वारा स्तुति कीये जाते हुए आचार्य राज-कुल में जानें लगें । प्रमाद से युक्त उनको सुनकर वृद्धवादी वेष का परावर्तन कर वहाँ पर आये। राजकुल में जाते हुए उनको देखकर एक सुखासन के दंड पर अपना स्कंध दिया । तब मद से भरे हुए चित्तवालें श्रीसिद्धसेन ने श्लोक के दो पदों को इस प्रकार से कहा बहुत भार के वजन से आक्रान्त हुआ यह तेरा स्कंध बाधित हो रहा हैं । वृद्धवादी ने कहा वैसे स्कंध बाधित नहीं हो रहा है जैसे कि बाधति का प्रयोग बाधित कर रहा है। तब शंकित हुए आचार्य ने सोचा- मेरे गुरु के बिना मेरे द्वारा कहे हुए में कौन दोष को कह सकता है ? इस प्रकार से विचारकर और आसन से उतरकर उनके चरणों में गिरें। अपने प्रमाद की आलोचना कर और राजा से पूछकर गुरु के साथ में विहार किया । वृद्धवादी के स्वर्ग प्राप्त करने पर एक दिन मग्ग-दयाणं इत्यादि प्राकृत के पाठ में लोक के उपहास से लज्जित हुए, बाल्य अवस्था से भी संस्कृत के अभ्यास से और कर्म-दोष से गर्वित होते हुए सिद्धसेन ने संघ प्रति कहा- मैं संघ की अनुमति से सिद्धान्त को संस्कृत में करता हूँ। संघ ने भी निर्दोष वचन से कहा- बाल, स्त्री,
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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