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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ --- यहाँ पर उपनय इस प्रकार से हैं- जैसे राजा और अमात्य थें, वैसे जीव हैं । वहाँ जो कुछ भी तपश्चरण आदि बाह्य गुण को देखकर अन्यान्य दर्शन की कांक्षा करतें हैं, वें ही राजा के समान तृप्त नहीं होने से दुर्गति के भाजन होतें हैं । जो स्याद्वाद सुपक्ष में अत्यंत निश्चल होते हैं वें मंत्री के समान सुख को प्राप्त करतें हैं । I इस प्रकार से आकांक्षा में राजा और मंत्री का प्रबन्ध हैं । इस विषय में यह अन्य भी वृत्तांत हैं गुण-दोषों को जाने बिना जो सर्व देवों में भक्तिमान् होता हैं, वह श्रीधर के समान सुख को प्राप्त नहीं करता । गजपुर में प्रकृति से भद्रिक श्रीधर नामक व्यापारी रहता था । एक दिन उसने मुनि के समीप में धर्म को सुना । वह तीनों सन्ध्याओं में परमात्मा की पूजा करने लगा । एक बार जिन - मंदिर में धूप डालकर उसने अभिग्रह को ग्रहण किया कि यह धूप जल रहा है तब तक मैं इस स्थान से नहीं चलूँगा। दैव से वहाँ पर सर्प निकला। फिर भी निश्चल रहा जब उसे वह सर्प डँसने लगा, तब उसके सत्त्व से संतुष्ट हुई देवी ने उस दुष्ट सर्प को दूर निकालकर, उसे मणि दिया । उस मणि से वर्षा ऋतु में लता के समान उसकी लक्ष्मी चारों ओर से बढ़ने लगी । 900 एक दिन स्व- कुटुंब में किसी रोग की उत्पत्ति होने पर किसी ने कहा कि - गोत्र - देवी की पूजा से गोत्र में कुशल होता है । उसने भी वैसा ही किया । कभी अपने शरीर में रोग की उत्पत्ति से किसी के वचन से उसने यक्ष की पूजा की । इस प्रकार लोगों के वचन से शान्ति-लाभ के लिए और भावी रोग से निवृत्ति के लिए वह नित्य पूजा करता था । भव्य-जीव सत्-असद् की संगति से गुण-दोषों को प्राप्त करता हैं । जैसे कि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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