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________________ वंदित्तु सूत्र साधक समझता है कि, संसार और उसकी सामग्री के प्रति उसका राग भयंकर है। फिर भी प्रारंभिक कक्षा में राग मुक्त जीवन जीना उसके लिए संभवित नहीं, इसलिए रागादि की परंपरा और उसकी वृद्धि को रोकने एवं रागादि को निर्बल कर, आत्महित साधने के लिए साधक राग के स्थानों को बदलता है। रागी पात्रों के बदले वीतरागी देव, उनके मार्ग पर चलने वाले सद्गुरु भगवंत तथा साधर्मिक आदि के साथ अपना राग जोड़ता है। उत्तम द्रव्यों से वीतराग की भक्ति करके वह वीतरागता के समीप जाने का प्रयत्न करता है, क्योंकि रागी पात्रों के साथ राग जोड़ने से, यदि उनकी तरफ से भी वैसा ही प्रतिभाव प्राप्त हो तो राग की वृद्धि होती है, जब कि वीतराग आदि के साथ राग जुड़ने से, बदले में विकृत भाव न मिलने के कारण राग की वृद्धि नहीं होती और वीतराग के प्रति प्रेम प्रकटने से वीतरागता के प्रति आकर्षण पैदा होता है, जो वीतरागता प्राप्त करने का विशिष्ट प्रयत्न करवाता है और अंत में साधक को वीतराग बनाता है । वैसे तो देव-गुरु के प्रति उत्पन्न हुआ राग भी अंतत: तो साधना क्षेत्र में बाधक ही होता है । फिर भी वह राग संसार का राग तोडने में सहायक होता है और अंत में मल निकालने के लिए एरंडे के तेल की तरह स्वयं नष्ट हो जाता है । इस राग की ऐसी प्रवृत्ति होने के कारण ही वह राग प्रशस्त कहलाता है । उपरांत यह राग आज्ञाकारी सेवक जैसा होता है। इसलिए ज़रूरत हो तब उसे बुला सकते हैं और ज़रूरत न हो तब उसे वापस भी भेज सकते हैं। देव की तरह गुरु का राग भी संसार और संसार के संबंधों का त्याग करवाने में अति उपकारक बनता है । उस प्रशस्त राग को गुरु के उपदेश अनुसार अनुष्ठान करते करते ही तोड़ा जा सकता है और ऐसे प्रशस्त राग से भी मुक्त होकर मुमुक्षु निर्बंध अवस्था के सुख का अनुभव कर सकता है। इस तरह, भयंकर विष जैसे राग को भी यदि संस्कारित करके उपयोग करें तो वह भव रोग से मुक्त कराने वाली औषधि बन जाती है। ___ राग की तरह क्रोध भी भयंकर है। अपराधी पर क्रोध हो तो वह क्रोध स्व-पर को नुकसान करने वाला बनता है। उसके बदले अगर अपराध के मूल कारणभूत अपने कर्मों, दुर्गुणों एवं कुसंस्कारों के ऊपर क्रोध करें, तो क्रोध के कारण नष्ट होने से क्रोध को कहीं अवकाश ही नहीं मिलता। कभी ऐसा बने कि जवाबदारी के कारण सामने वाले व्यक्ति के हित को लक्ष्य में रखकर या शासन की रक्षा के लिए क्रोध करना भी पड़े, परंतु ऐसा क्रोध करने से पहले सामने वाले व्यक्ति की
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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