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________________ २७८ वंदित्तु सूत्र सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं - तीन दंड से विराम पाए हुए उन सबको तीन योग से मैं नमन करता हूँ। आत्मा को जो दंडे - दु:खी करे, उसे दंड कहते हैं। पाप प्रवृत्ति में प्रवर्तते मन, वचन एवं काया के योग आत्मा को अशुभ कर्मों का बंध करवाकर, दुर्गतियों में भटकाकर, दुःखी करते हैं, इसलिए उन्हें दंड कहते हैं। हर एक मनुष्य को मन, वचन तथा काया की ये तीन शक्तियाँ मिलती हैं। ज्ञानी पुरुष इन तीन शक्तियों का साधना के क्षेत्र में सदुपयोग कर, आत्मा का अनंत आनंद प्राप्त करते हैं और अज्ञानी जीव काल्पनिक सुखों के पीछे, इन्द्रियों को संतुष्ट करने के लिए एवं आत्मा से भिन्न शरीर आदि के शृंगार के पीछे इस शक्ति का दुरुपयोग कर, इसी शक्ति द्वारा दुरंत संसार का सर्जन करते हैं। इस तरीके से महान पुण्योदय से प्राप्त हुए इन योगों को संसारी मानव दंड स्वरूप बनाता है। ___ अनंतकाल से अज्ञानता के कारण भौतिक सुख की आसक्ति से जीव ने कैसेकैसे दुःख पाए हैं, वह शास्त्र के माध्यम से मुनिभगवंत जानते हैं । इसलिए वे संसार से - संसार के सुखों से सदा उद्विग्न रहते हैं। वे समझते हैं कि मन, वचन एवं काया को स्वेच्छा से प्रवर्तित करने के कारण मुझे ही फिर से दंड भुगतना पड़ेगा। इसलिए वे स्वेच्छा से प्रवर्तते हुए मन, वचन, काया को रोककर, परम कल्याणकारी, सुख की सच्ची राह बतानेवाले परमात्मा के वचनानुसार मन, वचन, काया का प्रवर्तन चालू रखते हैं। परमात्मा के वचनों को समझने के लिए शास्त्रों का अभ्यास करते हैं। जब तक शास्त्रों की पूरी जानकारी प्राप्त ना हो, तब तक गीतार्थ गुरुभगवंतों के आश्रित जन बनकर उनकी आज्ञानुसार जीवन जीते हैं अर्थात् उनकी निश्रा में विचरते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि भगवान के वचन के विरूद्ध लेशमात्र भी प्रवृत्ति हो तो निश्चय से कर्मबंध होगा एवं कर्म को भुगतने फिर दु:ख सहना पड़ेगा। इसलिए ही संसार से अत्यंत भयभीत हुए मुनि जब तक स्वयं गीतार्थ न बनें तब तक शास्त्रज्ञ पुरुष के शरण में ही रहते हैं। उनके वचनों के अनुसार समिति-गुप्ति में रहने का प्रयत्न करते हैं, शरीर के धर्म का पालन भी अनासक्त भाव से करते हैं। ऐसे मुनि त्रिदंड से विराम प्राप्त किए हुए कहलाते हैं। इस गाथा का उच्चारण करते समय श्रावक सोचता है कि, 'धिक्कार है मुझे ! एक ओर मैं पाप न करने का संकल्प कर प्रतिक्रमण करता हूँ और दूसरी ओर
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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