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________________ २७६ वंदित्तु सूत्र प्रतिक्रमण करनेवाला श्रावक कर्म निर्जरा के उद्देश्य से और साथ साथ अपनी आराधना निर्विघ्न संपन्न हो इसलिए परमात्मा को वंदन कर मंगल कामना करता है। अवतरणिका: सम्यक्त्व की शुद्धि के लिए सर्व प्रतिमाओं को वंदन करके, अब संयम पालन की शक्ति का संचय करने के लिए श्रावक सर्व साधु भगवंतों को भी वंदन करता है। गाथा : जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ।।४५।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : भरत-ऐरवत-महाविदेहे च यावन्त: के अपि साधवः । त्रिदण्ड-विरतेभ्य: तेभ्य: सर्वेभ्य: त्रिविधेन प्रणत: ।।४५।। गाथार्थ : भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में जो कोई तीन दंड से विरत साधु भगवंत हैं उन सबको मैं मन,वचन, काया से प्रणाम करता हूँ। विशेषार्थ: जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ - भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र में जो कोई भी साधु भगवंत हैं। ४५' लाख योजन प्रमाण मनुष्यलोक है। उसमें भरत, ऐरावत एवं महाविदेह क्षेत्ररूप १५ कर्मभूमियाँ हैं। इन कर्मभूमियों में जन्में मनुष्यों को ही साधु बनने के १. अढाई द्वीप एवं दो समुद्र प्रमाण मनुष्य क्षेत्र है। इस मनुष्य क्षेत्र में भरत, ऐरावत एवं महाविदेह ऐसे तीन क्षेत्र आते हैं। इस अढाई द्वीप में सबसे मध्य में १ लाख योजन प्रमाण का जंबूद्वीप है। उसको घेरता हुआ २ लाख योजन प्रमाण का लवण समुद्र है। उसको घेरता हुआ ४ लाख योजन प्रमाण घातकी खंड है। उसको घेरता हुआ ८ लाख योजन प्रमाण कालोदधि समुद्र है एवं उसको घेरता हुआ १६ लाख योजन प्रमाण पुष्करावर्त नामका द्वीप है। इस द्वीप के बराबर मध्य में मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्यों की बस्ती है। इसलिए यह द्वीप अर्ध
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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