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________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण गाथा-४० २६१ विशेषार्थ : कयपावो वि मणुस्सो - जिसने पाप किया है ऐसा मनुष्य भी। कयपावो मणुस्सो याने पापी मनुष्य । संसार में सभी जीव पाप तो करते ही हैं पर उसमें अधिकतम जीव तो पाप को पापरूप समझते नहीं एवं बहुत से ऐसे भी हैं जो पाप है ऐसा जानकर भी अपने सुख के लिए आनंद और हर्ष से पाप करते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव इन दोनों से अलग होता है । वह पाप को पाप रूप समझता है तो भी वह पाप कर बैठता है या उसे पाप करना पड़ता है। इसलिए उसे भी पापी या ‘कृत पापकर्म' तो कहा जाता है। फिर भी पाप का स्वरूप समझने के कारण वह किए हुए पाप से व्यथित रहता है। ‘मुझसे यह पाप हो गया, अब मैं इस पाप से कैसे मुक्त हो पाऊँगा' ऐसी चिन्ता में वह सतत व्यग्र रहता है और पापनाशक उपाय करने में भी वह निरंतर प्रवृत्त रहता है। जिज्ञासा - 'कयपावो वि मणुस्सो' : इस पद में यदि ‘कयपावो वि जीवो' ऐसा लिया होता तो सम्पूर्ण जीवों का संग्रह हो जाता, फिर मणुस्सो शब्द का प्रयोग क्यों किया है ? तृप्ति : मूल गाथा में 'मणुस्सो' शब्द का प्रयोग किया है। इसका कारण यह है कि चारों ही गति के जीव पाप कर्म करते हैं, अतः कृत पापवाले तो सभी होते हैं, परंतु किए हुए पापों का प्रतिक्रमण कर, सम्पूर्ण शुद्ध होने की शक्ति मात्र मनुष्य में होती है। यद्यपि देव अथवा नरक के भव में सम्यग् दर्शन होता है, तथापि पापनाशक विरति की क्रिया रूप प्रतिक्रमण वहाँ नहीं होता। तिर्यंच के भव में देशविरति है, परंतु उनके पास भी प्रतिक्रमण की क्रिया द्वारा सम्पूर्ण शुद्ध होने की शक्ति या मनुष्य जैसी सानुकूलता नहीं होती। इसलिए यहाँ कयपावो वि जीवो' का उल्लेख न करते हुए ‘कय पावो वि मणुस्सो' का प्रयोग किया गया है। कृतपापवाला मनुष्य क्या करता है ? आलोइअ निंदिअ गुरुसगासे - गुरु के समक्ष आलोचना निन्दा करके। किए हुए पापों की आलोचना किसी के भी पास या किसी भी तरह करने से श्रावक को लाभ नहीं होता। इसलिए पाप के बोझ तले दबा हुआ श्रावक पहले गुरु को खोजता है। सदगुरु मिलने पर उनके समक्ष पश्चात्ताप पूर्वक अपने पापों का
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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