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________________ वंदित्तु सूत्र कर्म जड़ है एवं आत्मा चेतन है, कर्म निर्गुण है और आत्मा अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वीर्य स्वरूप गुणों से युक्त है। अनंत शक्तिवान आत्मा भी मोह से व्यथित होने के कारण अनुकूल सामग्री प्राप्त होने पर उसमें राग करती है और प्रतिकूल सामग्री के संयोग में द्वेष करती है। इस राग-द्वेष के फलस्वरूप आत्मा में एक प्रकार की स्निग्धता पैदा होती है, जिसके कारण आत्मा ज्ञानादि गुणों को आवृत करनेवाले ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों (कार्मणवर्गणा) के साथ संबंधित हो जाती है। आत्मा और कर्मों का यह संबंध ही तो संसार है एवं इस संबंधों के कारण ही सम्पूर्ण भव नाटक चलता है। जन्म और मृत्यु, हर्ष और शोक, सुख और दुःख, संयोग और वियोग : इन सबका मूल कर्म है। कर्म के साथ आत्मा का संबंध न हो तो जन्मादि का होना संभव ही नहीं । श्रावक समझता है कि वर्तमान में जिस किसी दुःख की परंपरा का सर्जन हो रहा है और भविष्य में भी जिस किसी दुःख की परंपरा का सर्जन होने वाला है उस सबके मूल में स्वयं बांधे हुए कर्म ही हैं। उसमें और किसी का दोष नहीं है । इसलिए अगर मुझे सुखी होना हो तो सर्व प्रथम मुझे इन पाप कर्मों का नाश करना चाहिए। २५४ - अब पाप कर्मों के नाश के लिए श्रावक क्या करता है, यह बताते है : एवं आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ इस तरह ( सुवैद्य जिस प्रकार जहर को मिटा देता है उस तरह ) आलोचना और निन्दा करता हुआ श्रावक शीघ्रता से कर्मों का नाश करता है। शरीर में से विष निकालने के लिए वैद्य जिस प्रकार गारुडिक मंत्र का प्रयोग करता है उसी प्रकार सुश्रावक भी राग द्वेष से बांधे हुए आठ प्रकार के कर्मों का नाश करने के लिए सर्वप्रथम आलोचना करता है। उसके लिए साधक अपनी उपयोग धारा को बाह्य विषयों से हटाकर उसको अंतर की ओर मोड़ता है। आत्मा के कुसंस्कारों का ख्याल आने पर साधक का हृदय अत्यंत खलबला उठता है। उसको ऐसा लगता है कि कहाँ मेरा निर्मल होने का लक्ष्य और कहाँ मेरी ये मलिनता। अपने दोषों को दूर करने के लिए वह गंभीरता से संशोधन शुरू करता 1. कर्म सामान्य से आठ प्रकार के होते है : १. ज्ञानावरणीय कर्म, २. दर्शनावरणीय कर्म, ३. वेदनीय कर्म, ४. मोहनीय कर्म, ५. आयुष्य कर्म, ६. नाम कर्म, ७. गोत्र कर्म, ८. अंतराय कर्म.
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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