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________________ वंदित्तु सूत्र प्रयोग प्रभु वचन का स्वाध्याय करने में करूँगा और अधिकतर समय में मौन रहूँगा ।' २४० मणसा माणसिअस्स (स्सा) सव्वस्स वयाइआरस्स - सब व्रतों के अतिचार में मानसिक अतिचारों का मन द्वारा ( मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ) । व्रतधारी श्रावक अपने मन को सतत शुभ भावों में रखने का प्रयत्न करता है, तो भी मन चंचल है, चंचल मन को व्रत के भाव में स्थिर रखना दुष्कर है। मोह के आधीन होकर व्रतमालिन्य हो वैसे दुष्ट विचार, व्रत की मर्यादा का उल्लंघन हो ऐसा अशुभ चिंतन, देव-गुरू-धर्म के प्रति की हुई शंका-कुशंकाएँ या आर्त्त-रौद्र ध्यान ये सब व्रत विषयक मानसिक अतिचार हैं। 'हे भगवंत ! इन सब दोषों का मैं मन से प्रतिक्रमण करता हूँ अर्थात् हृदयपूर्वक आलोचना करके मन को शुभ भावों में, शुभ चिंतन या शुभ ध्यान में जोड़कर पुनः व्रतादि में स्थिर होता हूँ ।' इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि - 'मन, वचन, काया के नियंत्रण के बिना व्रत, नियमों का सुविशुद्ध पालन करना असंभव है। इस सत्य को समझने के बावजूद भी मन, वचन, काया के ऊपर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सका हूँ। इस कारण बहुतसी जगह मैं व्रत मर्यादा में चूक गया हूँ। यह मैंने गलत किया है। इस पाप से मुक्त होने के लिए मैं काया के अनुकूल व्यवहार से हुए दोषों का काया को प्रतिकूल बने वैसे व्यवहार द्वारा, वाणी के अनियंत्रण से हुए दोषों का वाणी के नियंत्रण द्वारा एवं मन की चंचलता से हुए दोषों का मन के अशुभ भावों को रोककर उसे शुभ भाव में स्थिर करके, प्रतिक्रमण करूँगा। इस प्रकार मैं व्रत में स्थिर बनूँगा ।' अवतरणिका : ܕ बारह व्रतों के अतिचार जानकर अब श्रावक के लिए करने योग्य जो शुभ क्रियाएँ हैं एवं न करने योग्य जो अशुभ क्रियाएँ हैं, उन विषयों में जो अतिचार लगें हों उनका विशेष प्रतिक्रमण बताते हैं ।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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