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________________ भूमिका प्रतिक्रमण है; अथवा पापकर्मों की निन्दा, गर्दा एवं आलोचना करके निःशल्य बनी हुई आत्मा को मोक्ष फल प्राप्त कराने वाले शुभ योगों में पुनः पुनः प्रवर्तित करवाना वही प्रतिक्रमण है। संक्षिप्त में आत्मा को अपने सुविशुद्ध भाव में लाने वाली प्रवृत्ति प्रतिक्रमण है। आत्मा को जिस क्षण अहसास होता है कि ‘प्रमाद के वश होकर मैं भूला पड़ा हूँ, विषय-कषाय के अधीन होकर मैं चूक गया हूँ, अंततः सुख के मार्ग को त्यागकर मैंने दुःख का मार्ग अपनाया है, शुद्धि का विचार किए बिना मैंने अपने आपको अशुद्ध बनाया है, शांति-समाधि का मार्ग छोड़कर मैंने अशांति-असमाधि का मार्ग लिया है, चित्त की स्वस्थता को त्यागकर मैंने अस्वस्थता के कारणों को स्वीकारा है, उसी क्षण उसकी मनोवृत्ति बदल जाती है। हिंसादि दोषों से वापस लौटकर वह अहिंसक भाव में आने का प्रयत्न करता है, आत्मा की अशुद्धियों को दूर करके वह शुद्धभाव की तरफ जाने का प्रयत्न करता है। धनादि की अंधी दौड़ पर अंकुश लगाकर वह संसार की मोह-ममता को घटाने का प्रयास करता है । पाप प्रवृत्ति से निष्पाप प्रवृत्ति की ओर आने का, अशुद्धि से शुद्धि की ओर आने का जीव का प्रयत्न ही वास्तव में प्रतिक्रमण है। उत्सर्ग एवं अपवाद से प्रतिक्रमण : प्रतिक्रमण की इस क्रिया को उत्सर्ग एवं अपवाद की दृष्टि से भी सोचा जा सकता है। दोष मुक्ति एवं गुण प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते आत्मा की एक ऐसी भूमिका का सर्जन होता है कि एक बार जिस अशुद्धि को वह दूर करे, पुन: वैसी ही अशुद्धि तो होती ही नहीं, जिस पाप या भूल का एक बार 'मिच्छामि दुक्कडं' दिया हो वह पाप या भूल दोबारा कभी होती ही नहीं, विषय-कषाय एवं प्रमाद के प्रति भी ऐसी सावधानी विकसित होती है कि, सहजता पूर्वक उनसे पराङमुख होकर आत्मभाव में स्थिर रह सके। आत्मभाव में रहने की, स्वभाव में स्थिर होने की इस प्रक्रिया को शास्त्रकार उत्सर्ग से प्रतिक्रमण कहते हैं। 2. प्रति प्रति वर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलेषु । निःशल्यस्य यतेर्यत् तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ।। -आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीयटीका गा. १२३०/३१ वृत्तौ
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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