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________________ ग्यारहवाँ व्रत गाथा-२९ २११ करनेवाला व्यक्ति धर्म की निन्दा में निमित्त बन जाता है और उस कारण उसे तीव्र मोहनीयादि कर्मों का बंध भी होता है। इसलिए व्रतधारी श्रावक को ऐसे दोषों के प्रति बहुत सावधान एवं जागृत रहना चाहिए, तो ही वह इस दोष से बच सकता है। तह चेव भोयणाभोए - उसी प्रकार भोजनादि की चिंता करने में। भोजन अर्थात् आहार, पौषध व्रत का स्वीकार करने के बाद भोजन संबंधी चिंता करनी जैसे कि भोजन मिलेगा या नहीं, कैसा मिलेगा आदि की विचारणा भोजन संबंधी अतिचार हैं। यहाँ मात्र भोजन संबंधी विचारों की बात बताई गई है; परंतु इसी तरह जिसका त्याग किया है, वैसे शरीर का श्रृंगार, अब्रह्म या सांसारिक व्यवहार संबंधी किसी भी विचार, वाणी या वर्तन करने से पौषध व्रत दूषित होता है। पोसह-विहि-विवरीए - पौषधविधि विपरीत तरीके से करने में। पौषध व्रत स्वीकार करने के बाद जब तक यह व्रत पूर्ण न हो तब तक जो विधि शास्त्र में बताई है उसमें प्रमादादि दोष के कारण भोजनादि की चिंता जैसे अन्य कोई विपरीत आचरण करने से, बैठे-बैठे क्रिया करने से, शून्य मन से करने से, पौषध लेकर स्वाध्याय के बदले विकथाएँ करने से, समय होने पर भी कायोत्सर्ग या ध्यानादि करने के बदले निद्राधीन होने से पौषध विधि दूषित होती है। तदुपरांत स्वीकारे हुए व्रत में दोष उद्भव हो वैसा मन, वचन, काया का कोई भी वर्तन करने से पौषध व्रत में विपरीत विधि' नाम का पाँचवाँ अतिचार लगता है। यहाँ इतना ख्याल रखना चाहिए कि इस गाथा में मुख्यरूप से प्रमार्जना, परिष्ठापना और मनोगुप्ति विषयक अतिचार बताए गए हैं; परंतु उनके उपलक्षण से 9 धर्म संग्रह, योग शास्त्र आदि में अन्य तरीके से भी पाँचों अतिचारों का संग्रह किया गया है। 'संस्तारादानहानान्य-ऽप्रत्युपेक्ष्याऽप्रमृज्य च । अनादरोऽस्मृतिश्चेत्य-ऽतिचारा: पौषधव्रते।।' (१) देखे बिना या प्रमार्जन किए बिना संथारा करना (२) देखे बिना या प्रमार्जन किए बिना चीज़ों को लेना या रखना (३)देखे बिना या प्रमार्जन किए बिना परठवना (४) पौषध के प्रति अनादर और (५) विस्मरण होना : पौषध व्रत के विषय में ये पाँच अतिचार बताये हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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