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________________ ग्यारहवाँ व्रत गाथा-२९ २०७ रखते हुए तीन प्रकार का आहार त्याग करना अथवा आयंबिल, नीवि या एकासना करके एक समय से अधिक आहार का त्याग करना, वह देश से आहार त्याग पौषध है। पौषध व्रत को स्वीकार करने वाला श्रावक सोचता है कि - ‘आहार करना तो आत्मा का स्वभाव नहीं है, तो भी धर्म की साधना शरीर बिना संभवित नहीं और शरीर आहार बिना नहीं टिक सकता । इसलिए मुझे आहार लेना पड़ता है। ऐसा होते हुए भी अनावश्यक बारबार खाने की इच्छा और कुछ भी खाने की इच्छा, आहार संज्ञा के कारण होती है। शरीर और इन्द्रियों के ममत्व के कारण एवं आहार संज्ञा की अधीनता के कारण हमेशा मैं इस इच्छा के उपर अंकुश नहीं रख पाता, परंतु आज पर्व का दिन है, इसलिए आज मैं मेरे अणाहारी स्वभाव को प्राप्त करने एवं आहार संज्ञा की पीड़ा को दूर करने के लिए उपवास या आयंबिल आदि तप करके आंशिक रूप (देश) से अथवा सम्पूर्णता (सर्व) से आहार का त्याग करता हूँ।' ऐसा सोचकर श्रावक जो आहार का त्याग करता है उसको देश से या सर्व से आहार पौषध कहते हैं। (२) शरीर सत्कार पौषध : शरीर के सत्कार का त्याग करना। स्नान, उबटन, विलेपन, पुष्प, गंध, वस्त्र और अलंकार द्वारा शरीर का श्रृंगार करना शरीर सत्कार है। देश से अथवा सर्व से शरीर सत्कार का त्याग करना शरीर सत्कार पौषध है। श्रावक समझता है कि - ‘शरीर जड़ है और अशुचि से भरा हुआ है। अशुचिमय ऐसे शरीर के साथ आत्मा का संबंध कर्मों के कारण हुआ है। कर्मोदय से प्राप्त इस शरीर का श्रृंगार करके सुंदर रखने की इच्छा शरीर के राग के कारण होती है। शरीर का राग तोड़कर अशरीरी ऐसे आत्मभाव को पाने का मैं सतत प्रयत्न नहीं कर सकता, तो भी आज पर्व का दिन है, इसलिए आज इस राग को तोड़ने के लिए ही शरीर के सत्कार का त्याग करूँ' ऐसा सोचकर श्रावक जो स्नानादि का त्याग करता है, वह शरीर सत्कार पौषध' कहलाता है। जिज्ञासा : सावद्य द्रव्य से शरीर का सत्कार किया जाए तो पाप है, परंतु पौषध में निरवद्य द्रव्य से शरीर सत्कार किया जाए तो क्या नुकसान है ?
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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