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________________ दसवाँ व्रत गाथा - २८ इस व्रत की मर्यादा का स्वीकार करने के बाद श्रावक को स्वीकारी हुई मर्यादा से बाहर के क्षेत्रादि संबंधी मन के विचार, वाणी का व्यवहार एवं काया से होती आवागमन की क्रियाओं को बंद करना चाहिए। इसलिए निश्चित किए हुए क्षेत्र के बाहर, फोन, फेक्स, ई-मेल, कम्प्यूटर, इन्टरनेट, टी.वी. या पत्रादि द्वारा भी संबंध नहीं रखना चाहिए चूँकि तब ही क्षेत्र संबंधी हिंसा से बच सकते है । मात्र बाहर के क्षेत्र संबंधी व्यवहार नहीं; परंतु उसके प्रति जो ममत्व का नाता जुड़ा हो उसे भी तोड़ने का प्रयास श्रावक को करना चाहिए । २०१ इस व्रत का स्वीकार करके, क्षेत्र मर्यादा निश्चित करने के बाद, उस क्षेत्र से बाहर की वस्तु की ज़रूरत पड़े तो उसके बिना चला लेना ही योग्य है, परंतु दूसरों द्वारा उसे बाहर से मंगवाकर उसका उपयोग करना ठीक नहीं, क्योंकि वैसा करने में हिंसा से बचने का व्रत का मूल लक्ष्य संपन्न नहीं होता। यह व्रत संयम - जीवन की शिक्षा स्वरूप है। इसमें जिस प्रकार मुनियों को किसी भी चीज़ की अपेक्षा न रखते हुए जीवन जीने की भावना होती है, उसी प्रकार श्रावक को भी यही लक्ष्य रखकर इस व्रत का अभ्यास करना है। यह व्रत भी अन्य व्रतों की तरह प्रथम व्रत की बाड़ समान ही है। इस व्रत का लक्ष्य भी संपूर्ण अहिंसक भाव को प्राप्त करना है । परंतु श्रावक जब तक उन क्षेत्रादि के साथ ममत्व के संबंध को त्याग कर समभाव में या आत्मभाव में स्थिर रहने का यत्न नहीं करता तब तक वह इस लक्ष्य को साध नहीं सकता। वर्तमान में यह व्रत, उपवास, आयंबिल या ऐकासना का तप करके ८ सामायिक तथा दिन एवं रात के २ प्रतिक्रमण करने रूप में प्रचलित है, परंतु इस रीति से भी व्रत धारण करते समय ऊपर बताए हुए व्रत का लक्ष्य तो ध्यान में रखना ही चाहिए । नीचे बताए हुए इस व्रत के अतिचार, विशेष रूप से अलग-अलग क्षेत्र संबंधी वस्तु मँगवाने आदि विषयक हैं। आणवणे - आनयन प्रयोग । क्षेत्र की मर्यादा से बाहर, नौकरादि से कोई वस्तु मँगवाना, प्रयोग' नाम का प्रथम अतिचार है। वह 'आनयन
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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