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________________ वंदित्तु सूत्र ही पाल सकते हैं। श्रद्धासम्पन्न श्रावक को भी ऐसी निष्प्रयोजन प्रवृत्ति अच्छी तो नहीं लगती, परंतु सर्वथा उनका त्याग करने का उसमें सामर्थ्य नहीं होने से, वैसा सामर्थ्य पैदा करने के लिए ही श्रावक अति अनर्थकारी, निष्प्रयोजन हिंसावाली प्रवृत्तियों का त्याग करने के लिए थोड़े नियम लेता है, जैसे कि अति हिंसा हो वैसे हिंसक शस्त्रों की लेन-देन नहीं करना, जिन पूजा या व्यावहारिक कारणों के अलावा स्नान न करना जिससे रागादि भावों की तीव्रता बढ़े, ऐसे शरीर की शोभा, उबटन लगाना वगैरह न करना, नख- दाँत -बाल आदि को न रंगना, ब्यूटी पार्लर का सर्वथा त्याग करना रेडियो, टी.वी. आदि न सुनना-देखना, विकृत रूप का दर्शन कराने वाले नाटक, पिक्चर या सर्कस आदि न देखना, रसना को उत्तेजित करे ऐसे पापड- चटनी - रायता - आचार या बाज़ारू नमकीन (फरसाण ) आदि न खाना, सेंट-अत्तर आदि का उपयोग न करना, असभ्य वस्त्र न पहनना, शरीर के सुख के लिए या मान - रूतबा दिखाने के लिए विविध प्रकार का फर्नीचर उपयोग में न लाना और अपने वैभव के अनुसार मर्यादित वस्त्र, अलंकारों के अलावा शरीर की शोभा के लिए अधिक आभूषण आदि न पहनना इत्यादि । १७६ निष्प्रयोजन आत्मा का अनर्थ हो वैसे कार्य इस जगत में बहुत हैं। शास्त्रों में सबका समावेश चार विभागों में किया है : (१) अपध्यान (२) पापोपदेश (३) हिंस्रप्रदान और (४) प्रमादाचरण । जिस चिंतन, विचार आदि से आत्मा का अहित होता हो और उसकी भव परंपरा बढती हो उसे अपध्यान कहते हैं । स्वपर का अहित करे वैसी पाप की प्रेरणा करनेवाली वाणी का व्यापार पापोपदेश कहलाता है, हिंसक शस्त्र आदि का काया द्वारा आदान-प्रदान हिंस्रप्रदान कहलाता है एवं आत्मा को अनर्थ के गड्डे में धकेले वैसी विषय, कषाय, निद्रा आदि की बाह्य- अंतरंग प्रवृत्तिओं को प्रमादाचरण कहते हैं। इन चार प्रवृत्तियों के नियंत्रण को अनर्थदंड विरमण व्रत कहते हैं । ३. सोऽपध्यानं पापकर्मों- पदेशो हिंसकार्पणम् । प्रमादाचरणं चेति, प्रोक्तोऽर्हद्भिश्चतुर्विधः ।। श्री जिनेश्वर देवों ने १. दुष्ट ध्यान करना २. पाप कर्मों का उपदेश देना ३. दूसरों को हिंसक चीजें देना एवं ४. प्रमाद करना: ऐसे चार प्रकार के अनर्थदंड कहे हैं। • धर्मसंग्रह ३६ श्लो. -
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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