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________________ सातवाँ व्रत गाथा - २२-२३ १७३ 'अर्थ अनर्थ का मूल है, तो भी गृहस्थजीवन धन बिना नहीं चल सकता। अतः मुझे धन की ज़रूरत तो पड़ती है। ज़रूरी धन कमाने के लिए अल्प हिंसावाले मार्ग भी इस दुनिया में बहुत हैं । फिर भी लोभ संज्ञा के अधीन होकर या कुमित्रों के कुसंग से मैंने भी श्रावक जीवन में न करने योग्य, इस लोक एवं परलोक दोनों को बिगाड़ने वाले कर्मादान वाले धंधे सीधे या उल्टे तरीके से अपनाये हैं। यह मैंने गलत किया है। इससे मैंने ही मेरी आत्मा को कर्म के बंधनों से बांधा है एवं दु:ख का भाजन बनाया है। हे भगवंत ! ऐसे जो पाप हुए हैं इन सब पापों की नतमस्तक होकर निन्दा करता हूँ। गुरु के पास उनकी गर्हा करता हूँ, पुनः पुनः ऐसे पाप ना हों इसलिए महासंतोषी अल्पारंभ वाले धंधे से आजीविका चलानेवाले पुणिया श्रावक आदि श्रावकों जैसा सत्त्व मुझमें प्रकट हो ऐसी प्रार्थना करता हूँ । ' चित्तवृत्ति का संस्करण : घोर पाप का बंध करवानेवाले पंद्रह कर्मादान के धंधे करने के लिए श्रावक को निम्नांकित विषयों पर चिंतन करना चाहिए : • संपूर्ण निर्दोष पापरहित जीवन जीने का सत्व नहीं होने के कारण मैंने श्रावक जीवन स्वीकारा है । जीवन निर्वाह के लिए धन की आवश्यकता है, पर अगर मैं चाहूँ तो अल्पारंभवाले धंधे द्वारा अल्प धन से भी निर्वाह कर सकता हूँ । • भौतिक सुख-सुविधा मान और रूतबा पाने के लिए ही मुझे जीवन ज़रूरत से अधिक धन पाने की इच्छा होती है। इस इच्छा का अंत लाने के लिए मुझे मेरी भौतिक सुख-सुविधा की इच्छा को ही नियंत्रण में लाना चाहिए । • कर्मादान के धंधे में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की बहुत ज़्यादा हिंसा होती है और अहिंसा धर्म के उपासक को ऐसे धंधे करने शोभास्पद नहीं होते । अगर में अपना जीवन सादगी भरा बना दूँ तो मुझे धन आदि की इतनी आवश्यकता ही नहीं रहेगी और फिर धन के लिए कर्मादान के धंधे करने का लालच भी नहीं होगा । अतः नरकादि में ले जानेवाले कर्मादान के धंधे करने की वृत्ति का नाश करने के लिए जीवन में सादगी अति आवश्यक I
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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