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________________ १३० वंदित्तु सूत्र अवतरणिका : अब चौथे व्रत को दूषित करने वाली वृत्ति और प्रवृत्ति को बताने वाले पाँच अतिचार बताते हैं : गाथा : अपरिग्गहिआ-इत्तर-अणंग-विवाह-तिव्व-अणुरागे। चउत्थवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।१६।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : अपरिगृहीता-इत्वर-अनङ्ग-विवाह-तीव्रानुरागान् । चतुर्थव्रतस्य दैवसिकं सर्वम् अतिचारान् प्रतिक्रामामि ।।१६ ।। गाथार्थ : (१) अपरिगृहीतागमन, (२) ईत्वरपरिगृहितागमन, (३) अनंगक्रीड़ा, (४) परविवाह, एवं (५) तीव्र अनुराग। चौथे व्रत के इन पाँच अतिचारों में से दिन भर में जो अतिचार लगे हों उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ : ‘स्वदारा संतोष-परस्त्री गमन विरमण' व्रत को स्वीकार करने के बाद श्रावक को उस व्रत के पालन के लिए सतत सावधान रहना चाहिए। काम-वासनाओं का नाश करने के लिए सदैव भोग की भयंकरता का विचार करना चाहिए। ऐसा होते हुए भी तीव्र वेद के उदयकाल में बहुत बार वह मन एवं इन्द्रियों का संयम खो बैठता है। ऐसी परिस्थिति में, कभी उसके द्वारा व्रत को मलिन करने वाले अतिचारों का आसेवन हो जाता है जिसके सामान्यतया निम्न बताए गए पाँच प्रकार हैं : अपरिग्गहिआ - अपरिगृहीतागमन। जिस स्त्री को किसीने ग्रहण न किया हो वैसी कुमारी कन्या, वेश्या या विधवा स्त्री के साथ भोग करने को शास्त्रीय भाषा में अपरिगृहितागमन कहा जाता है । यह स्त्री किसी की नहीं, इसलिए परदारा नहीं - दूसरे की स्त्री नहीं, ऐसा मानकर तीव्र भोगासक्ति के वक्त स्व स्त्री से संतोष न होते हुए, ऐसी स्त्री के साथ दुःखार्द्र
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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