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________________ वंदित्तु सूत्र करना चाहिए एवं किसी भी गलत संकल्प-विकल्प में नहीं पड़ना चाहिए, परंतु निर्विकल्प भाव में रहने का सतत प्रयत्न करना चाहिए और जब तक निर्विकल्प अवस्था में स्थिर न हो सके तब तक शुभ भावों में स्थिर रहने का प्रयत्न करना चाहिए, तो ही भाव प्राण की सुरक्षा हो सकती है। यही बात समझाने के लिए महामहोपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने भी कहा है कि - ऐकताज्ञान निश्चयदया, सुगुरू तेहने भाखें, जेह अविकल्प उपयोगमां, निज प्राणने राखे॥४-९॥ ___ - १२५ गाथा का स्तवन राग, द्वेष अथवा ममता आदि भावों के स्पर्श बिना शुद्ध ज्ञानगुण में जो लीनता प्राप्त होती है अर्थात् मात्र शुद्ध ज्ञान की धारा में उपयोग की जो एकाग्रता बनी रहती है, वही निश्चय नय से दया है - ऐसा सद्गुरू भगवंत कहते हैं। इसी कारण से जो सर्व विकल्पों को त्यागकर निर्विकल्प भाव में रहता है, वह ही निश्चय नय से अपने भाव प्राणों की रक्षा कर सकता है। ___ जो भाव प्राण की उपेक्षा करके केवल द्रव्य अहिंसा के लिए परिश्रम करते हैं, वे वास्तव में जैन शासन की हिंसा, अहिंसा को समझ ही नहीं पाए हैं। इस बात को स्पष्ट करते हुए इसी स्तवन में आगे बताया है कि जो पर प्राण' की दया पालता है, उसकी दया मात्र व्यवहारिक है वास्तविक नहीं है, क्योंकि स्व-दया बिना अन्य की दया कोई कैसे पाल सकता है ? अर्थात् स्व-भाव प्राण की उपेक्षा करने वाला सही अर्थ में द्रव्य दया का भी पालन नहीं कर सकता। व्रत की प्रतिज्ञा : श्रमण भगवंत सर्वथा प्राणातिपात विरमण व्रत स्वीकार करके, खुद की और अन्य की भाव हिंसा से बचने के लिए अत्यंत सावधान रहते हैं और वे अपने 3. जेह राखे पर प्राण ने, दया तास व्यवहारे, निज दया विण कहो पर दया, होवे कवण प्रकारे ? ॥४-१०॥
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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