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________________ इसको लिखते समय एक-एक अणुव्रतों पर गहरी विचारणा करने, उनसे संबंधित शास्त्रों का विमर्श करने एवं विद्वानों के साथ इस विषयक चर्चा करने का सुन्दर अवसर मिला। फलस्वरूप, द्रव्य एवं भाव से इन व्रतों का स्वरूप कैसा है, उनका अनंतर एवं परंपर प्रयोजन क्या है, और खास तो उनके द्वारा अनियंत्रित चित्तवृत्ति को नियंत्रित कर मोक्ष साधक चारित्र किस तरह से प्राप्त कर सकते हैं वगैरह की बहुत अच्छी जानकारी मिली एवं कई उपयोगी सुझाव के साथ समाधान भी मिले। अणुव्रतों को समझने की एक नई ही दिशा प्राप्त हुई। साथ-साथ ऐसा भी लगा कि महाव्रतों का पालन तो दुधारी तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा दुष्कर है, लेकिन अणुव्रतों का शुद्ध पालन भी सरल नहीं है । एक तरफ ये निश्चित है कि मोक्ष का अनंत सुख पाने के लिए व्रतों का पालन अनिवार्य है, तो दूसरी तरफ अपने जैसे अल्प सत्त्ववाले जीवों के लिए उनका सुविशुद्ध पालन हो सके ऐसा संभवित नहीं लगता । शुद्ध पालन की भावना एवं प्रयत्न होने पर भी व्रत में प्रतिक्षण दूषण लगता रहता है। तो क्या ऐसे अतिचार प्रचुर (दोषबहुल) व्रतों से मोक्ष मिल सकता है ? ये मेरे मन की एक बड़ी उलझन थी। इस उलझन के निवारण के लिए ही प्रभु की अगम्य कृपा से मुझे पंचवस्तु ग्रंथ देखने की भावना जगी। हम सब इस ग्रंथ को साथ में पढ़ते थे। उसमें व्रतों के वर्णन के समय एक शिष्य ने मेरे जैसी ही उलझन व्यक्त की। समर्थ शास्त्रकार १४४४ ग्रंथ के रचयिता सूरिपुरंदर प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने वहाँ एक खूब सुन्दर सुलझन दी है। उनका कहना है कि साधारणतया तो अधिक अतिचारवाला व्रत मोक्ष दिलाने में समर्थ नहीं होता, तो भी यदि सुविशुद्ध व्रत पालने की अंतर की भावना हो, उसके लिए यथाशक्ति एवं यथामति प्रयत्न चालू हो, लेकिन प्रमादादि कुसंस्कारों के कारण कोई दोष लग जाते हो, तो साधक अंतर के तीव्र पश्चात्तापपूर्वक उनको दूर करके पुनः व्रत को सुविशुद्ध बना सकता है। साधक की ऐसी भावना हो तो वह व्रत संबंधी हुए दोषों की सम्यक् प्रकार से आलोचना करे, आत्मसाक्षी से पुनः पुनः उन दोषों की निंदा करे, सरल भाव से गुरु भगवंत के समक्ष उन पापों की गर्दा करे एवं उनके प्रायश्चित रूप ही प्रतिक्रमण की क्रिया करे। इस तरह से साधक व्रत संबंधी अशुद्धियों को दूर कर, सुविशुद्ध व्रतपालन द्वारा अवश्य आनंद पा सकता है। 10
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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