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________________ १८८ सूत्र संवेदना - २ जाता हो, तब ऐसे साधकों द्वारा अपनी साधना को जीवंत रखने या आगे बढाने के लिए तथा अशुभ ध्यान से बचने के लिए मात्र मन की स्वस्थता टिकाने की यह माँग की जाए, तो वह अयोग्य नहीं हैं, क्योंकि साधक इन सामग्रियों की माँग संसार को पुष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि साधना क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए करता है । भव से विरक्त और मोक्षमार्ग की साधना करने की इच्छावाले साधक को मन की स्वस्थता भी दिव्य सुख भुगतने के लिए नहीं चाहिए, परन्तु मन की व्यग्रता में धर्म की आराधना सुंदर तरीके से हो सके ऐसी इच्छा से धर्ममार्ग में आगे बढ़ने और स्थिरतापूर्वक आराधना करने के लिए, उसकी यह माँग है। जिस श्रावक या साधु को वर्तमान में कोई भी प्रतिकूलता नहीं है, तो भी वह भविष्य में मोक्षमार्ग की वृद्धि में विघ्न करनेवाली किसी अप्रतिकूलता की इच्छा से यह माँग करे, तो वह भी योग्य है, क्योंकि भक्तिपूर्वक ऐसी प्रार्थना इष्ट पदार्थ की प्राप्ति का कारण बनती है । मोक्षमार्ग में चलते साधक को भी अनादिकालीन दोष - कुसंस्कार कभी-कभी लोकविरुद्ध कार्य करवाते हैं और धर्मीजन यदि लोकविरुद्ध कार्य करें, तो धर्म का लाघव होता (लघुता होती) है, इसलिए साधक प्रभु के पास चौथी माँग ‘लोकविरुद्ध के त्याग' की करता है । लोगविरुद्धचाओ - लोक में जो विरुद्ध है, उसका त्याग । 'हे वीतराग ! आपके प्रभाव से शिष्टजन जिसे विरुद्ध मानते हों, वैसे लोकविरुद्ध कार्य का मैं त्याग करपाऊँ ।' लोक शब्द से यहाँ सामान्य लोक नहीं, बल्कि शिष्टलोक-सज्जनलोक समझना है। सननलोक में जो कार्य निंदनीय गिना जाता हो, सज्जन लोग जिस कार्य का विरोध करते हों और इस लोक और परलोक में जो खराब फल देनेवाला हो, वैसे हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार आदि कार्यों को लोकविरुद्ध कार्य कहते हैं।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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