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________________ उवसग्गहरं सूत्र १५५ इसके अलावा, इस स्तोत्र के अर्थ में थोडा परिवर्तन करके श्री पार्श्वयक्ष, धरणेन्द्र देव तथा पद्मावाती देवी को लक्ष्य में रखकर भी नवना हो सकती है । यह स्तोत्र श्री नमस्कार महामंत्र के बीज से भी वासित है। इसकी पाँचों गाथाओं के पहले पदों के पहले अक्षर ‘उव', 'विस', 'चिट्ट', 'तुह' और 'इअ' अनुक्रम से उपाध्याय, साधु, आचार्य, अरिहंत और सिद्ध पद के वाचक हैं। महामंगलकारी नवस्मरण में इस सूत्र का दूसरा स्थान है । प्राचीनता की अपेक्षा से सोचा जाए तो नवस्मरण में नवकार मंत्र शाश्वत है और बाकी के आठ स्तोत्रों में उवसग्गहरं स्तोत्र प्राचीनतम है । इस स्तोत्र की रचना कार्यवशात् हुई थी। जब श्रीसंघ में व्यंतरकृत उपद्रव हुआ था, तब अंतिम श्रुतकेवली चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने उसके निवारण के लिए इस सूत्र की रचना की थी । भद्रबाहुस्वामीजी के (सांसारिक) भाई वराहमिहिर जैनधर्म के कट्टर विरोधी थे । भद्रबाहुस्वामीजी की चारों ओर फैली कीर्ति को वे सह न सके। एक बार राजा के वहाँ पुत्ररत्न का जन्म हुआ । सभी लोग पुत्रजन्म के आनंद को व्यक्त करने आए, परन्तु जैन साधु का आचार न होने से, भद्रबाहुस्वामीजी वहाँ नहीं आए। इस बात का फायदा उठाकर वराहमिहिर ने राजा से कहा कि “आप के यहाँ पुत्रजन्म हुआ है, वह भद्रबाहुस्वामी को अच्छा नहीं लगा । इसीलिए वे पुत्र को आशिष देने भी नहीं आए ।" पू. भद्रबाहुस्वामीजी तक यह बात पहुँची । उन्होंने राजा को कहलवाया कि, जिस पुत्र की सातवें दिन बिल्ली से मृत्यु होनेवाली हो, उस पुत्र के जन्मोत्सव में आने का क्या प्रयोजन ? राजा ने पुत्र की सुरक्षा के लिए नगर में से सभी बिल्लियों को दूर करवा दिया, फिर भी बिल्ली के आकार के दरवाजे की कुंडी से बालक की मृत्यु हुई । आचार्य की बात सत्य हुई । उसके बाद लोक में वराहमिहिर की 3. उवसग्गहरं स्तोत्र - श्री अमृतलाल कालिदास
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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