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________________ सूत्र संवेदना संसारी जीवों को जो भी सुख प्राप्त होता है, वह पराधीन है । उसमें पुण्य, पुद्गल एवं परव्यक्ति की अपेक्षा रहती है एवं वह सुख भी इच्छा, उत्सुकतारूप दुःख के बाद प्राप्त होता है । पहले किसी वस्तु की इच्छा होती है, उससे संसारी जीवों की चेतना आकुल-व्याकुल होती है । उसके बाद अगर पुण्य हो तो जीव को वह वस्तु मिलती है एवं मिलने के बाद इच्छा की पूर्ति होने से दुःख हलका होता है । इस प्रकार उसे दुःख की अल्पता रूप सुख का थोड़े समय के लिए अनुभव होता है । परन्तु फिर नवीन इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छापूर्ति न हो तब तक दुःख होता है, वस्तु मिलने पर थोड़े समय सुख लगता है... इस प्रकार परपदार्थ विषयक इच्छा की पूर्ति से संसारी को क्षणवर्ती दुःख के शमनरूप सुख लगता है एवं कभी इच्छापूर्ति न हो तो दुःख में वृद्धि भी होती है । परन्तु सिद्धगति प्राप्त जीवों (सिद्धों) को ऐसी कोई मोहकृत इच्छा नहीं होती । इच्छा, मोह से हुआ विकार है । अनिच्छा आत्मा का स्वभाव है । इसलिए सिद्ध भगवंतो की आत्मा को ऐसी इच्छा से होनेवाली आकुलता-व्याकुलता का कोई दुःख नहीं होता, मात्र निराकुल शुद्ध चेतना होती है । स्थिरभाव युक्त यह चेतना उनको अनंतकाल तक अनंत सुख एवं स्वाभाविक आनंद देती है। उनके ऐसे सुख की तुलना किसी संसारिक सुख के साथ नहीं हो सकती । ___ सिद्ध अवस्था का सुख तो कर्मरोग के संपूर्ण नाश से होनेवाली निरोगी अवस्था का तात्त्विक (आत्मिक) सुख है । जब कि संसारियों का माना हुआ सुख तो कर्मरोग से होनेवाला पौद्गलिक सुख है । संसारी जीवों के इस सुख की तुलना शास्त्रकारों ने खुजली के दर्दी को खुजलाने से जो सुख मिलता है, उस सुख के साथ की है । जैसे खुजली के दर्दी को जब खुजली उठती है तब उसे बहुत खुजलाने का मन होता है । ये खुजलाना उसे बहुत अच्छा लगता है । इसलिए वो खुजलाने की क्रिया करता है, जिससे उसे आनंद होता है । पर खुजलाने के बाद उसे अत्यंत जलन एवं ज्यादा खुजली आती है, फिर भी वह खुजलाना नहीं छोड़ सकता। इसी तरीके से संसारी जीवों को मोहनीय कर्मरूप खुजली लागू हुई है । इस मोहनीय कर्म
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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