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________________ २८० सूत्र संवेदना कांटे की तरह आत्मा की प्रगति में रुकावट पैदा करते हैं । इसलिए, इस बोल द्वारा साधक तीन शल्यों के त्याग का संकल्प करता है । इन सब परिणामों की तरह कषाय भी बाधक हैं, इसलिए कहते हैं कि.. ४१-४२. क्रोध - मान परिहरु : क्रोध अर्थात् आवेश एवं मान अर्थात् अहंकार । ये दोनों कषाय भी आत्महित में बाधक हैं । इसलिए, इन दोनों कषायों का भी मैं त्याग करता हूँ। ४३-४४. माया - लोभ परिहरु : माया याने कपट एवं लोभ याने असंतोष, तृष्णा, ये कषाय भी आत्मा की कदर्थना करनेवाले हैं । इसलिए आत्मा में रहे हुए इन चार कषायों का भी मैं त्याग करता हूँ । इस बोल से ऐसा संकल्प किया जाता है । संसार या शरीर पर ममत्व होने के कारण छः काय के जीवों की विराधना होती है । जब तक ममत्व नहीं जाता, तब तक सामायिक के फल रूप समता प्राप्त नहीं होती । इसीलिए अब छः काय की विराधना से बचने के लिए कहते हैं ४५-४६-४७. पृथ्वीकाय, अप्काय तेउकाय की जयणा करूँ : जिन जीवों के शरीर का समूह पृथ्वी, पानी एवं अग्निरुप है वे पृथ्वीकाय, अप्काय एवं तैउँकाय के जीव हैं । संसार में रहे हुए संसारी जीवों के लिए तो इन जीवों की रक्षा शक्य नहीं, तो भी सामायिक के काल में तो मैं इन जीवों की रक्षा करने का यत्न करूँगा, ऐसी भावना से इन बोलों द्वारा जया रखने का संकल्प किया जाता है । ४८-४९-५०. वार्युकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय की जयणा करूँ : जिन जीवों का शरीर वायु एवं वनस्पति है तथा जो चलते-फिरते
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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