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________________ २७४ सूत्र संवेदना वैसे तो प्रतिलेखन की क्रिया बहुत छोटी है । परन्तु उसमें समग्र जैनशासन का सार भरा हुआ है । मुहपत्ती की प्रतिलेखना के समय बोले जानेवाले बोल का अगर शांत चित्त से विचारकर बोले जाएँ, तो मुहपत्ती प्रतिलेखन के बाद की हुई क्रिया जरूर उचित फल प्रदान करने में समर्थ होती है । इन एक-एक बोल का जितना अधिक चिंतन होगा, जितना गहरा विमर्श होगा, उतने अपने कुसंस्कार निश्चित रूप से नष्ट होंगे एवं आत्मा गुणों की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसीलिए यहाँ मुहपत्ती के एक एक बोल का सामान्य से विचार किया है । विशेष विचारणा सद्गुरु के पास बैठकर स्वयं करनी है । १. सूत्र, अर्थ, तत्त्व करी सहूं: अरिहंत भगवंतों द्वारा प्ररूपित एवं गणधर भगवंतों द्वारा गूंथे हुए सूत्र एवं अर्थ को तत्त्वरूप जानकर श्रद्धा करता हूँ ।। इस जगत् में आत्मा का हित करनेवाला कोई तत्त्व है, तो वह मात्र गणधरकृत सूत्र एवं उनके अर्थ ही हैं । जैसे जैसे सूत्रों का अभ्यास होता जाता है, उनका अर्थ समझ में आता जाता है, वैसे वैसे जगद्वर्ती पदार्थों का वास्तविक ज्ञान होने लगता है । जगत् के यथार्थ रूप को देखने से किस वस्तु में प्रवृत्ति करनी चाहिए एवं किससे निवृत्त होना है, इसका भी यथार्थ बोध होता है । इस बोध के अनुसार प्रवृत्ति करने से आत्महित होता है । सूत्र या अर्थ का मात्र ज्ञान आत्मा के लिए उपकारक नहीं बन सकता, “सूत्र एवं अर्थ ही जगत् में तत्त्वभूत (परमार्थ भूत) हैं" ऐसी दृढ मान्यता रखनेवाले साधक का ही हित हो सकता है। ऐसी तीव्र श्रद्धा ही आत्महित की साधना में उपकारक है । इसीलिए सर्वप्रथम इन शब्दों द्वारा साधक सूत्र-अर्थ की तत्त्वरूप से श्रद्धा करने का संकल्प करता है। सूत्र-अर्थ की श्रद्धा में दर्शन मोहनीय कर्म बाधक तत्त्व है । जब तक यह दर्शन मोहनीय कर्म निर्बल नहीं होता, तब तक सूत्र या अर्थ का ज्ञान पाकर उस पर 'श्रद्धा होना संभव नहीं हो सकता । इसलिए कहते हैं -
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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