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________________ करेमि भंते सूत्र २२५ उसके प्रति द्वेष नहीं एवं कोई चंदन से विलेपन करें, तो इसके प्रति राग नहीं, उन दोनों के प्रति समान भाव रखना, सामायिक है,। सामायिक के ये अर्थ व्यवहारिक दृष्टि से भिन्न होते हुए भी तात्त्विक दृष्टि से एक ही हैं क्योंकि, सद्व्यवहार समभाव के बिना संभव नहीं है शास्त्रानुसारी शुद्ध जीवन भी समभाव से ही सिद्ध होता है, क्योंकि शास्त्रों में समभाव से युक्त जीवन का ही निर्देश किया गया है । इसलिए ऐसा जीवन जीने के लिए समभाव को सिद्ध करना जरूरी है । आत्मा की अनादिकाल से चली आ रही विषम स्थिति का अंत भी समभाव की साधना से ही आता है । इसके अतिरिक्त, सभी जीवों के प्रति मित्रता या भाईचारे का भाव भी समभाव का स्पष्ट स्वरूप है; क्योंकि सभी जीवों के प्रति आत्म तुल्यता का भाव हो, तभी मित्रता होती है तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों का समन्वय भी समता के बिना नहीं होता । इस तरह, सब अर्थों का समन्वय हो जाए वैसा, ‘समभाव की साधना' यह सामायिक शब्द का योग्य अर्थ है । संसारवर्ती किसी भी पदार्थ में ममत्व-राग-द्वेष आदि भाव असामायिक भाव है एवं तमाम भावों में मात्र ज्ञाता भाव अर्थात् उस पदार्थ का ज्ञान करना और पदार्थ के ज्ञान के साथ उसमें अच्छे-बुरे या इष्ट-अनिष्ट से किसी भी भाव का स्पर्श न होने देना, सामायिक का परिणाम है । साधारणतया, ऐसा सामायिक का परिणाम बहुत ऊपर की कक्षा में आता है। तो भी इस प्रकार के परिणाम को लक्ष्य बनाकर सामायिक के दौरान अगर यत्न किया जाए, तो तत्त्व का पक्षपाती यह सामायिक अन्य सामायिकों से विशिष्ट बन सकता है । भूमिकाभेद से सामायिक का वर्णन : सामायिक शब्द के उपर्युक्त अर्थ सर्वश्रेष्ठ स्तर की सामायिक को ध्यान में रखकर किये हैं । परन्तु प्रत्येक मुमुक्षु की आराधना के योग्य सामायिक भूमिका के भेद से विविध प्रकार की है ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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