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________________ लोगस्स सूत्र १९५ हो, उसे केवली कहा जाता है । लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान जिसे प्रकट हुआ हो वैसे ऋषभदेव से लेकर वीर प्रभु तक के चौबीस तीर्थंकरों के गुणों को याद करके मैं उनका नामोच्चारण पूर्वक कीर्तन करूँगां । 'चउवीसंपि' में अपि शब्द से अन्य अरिहंत परमात्माओं का समुच्चय किया है ।। इस पद का उच्चारण करते हुए साधक बाह्य और अंतरंग संपत्ति से युक्त सभी तीर्थंकर भगवंतों को स्मृति पट पर बिराजित करके सोचता है कि, 'इन भगवंतों की भक्ति करने की तो मेरी शक्ति नहीं है, फिर भी उनके नाम और गुणों का स्मरण करके विशिष्ट भक्ति करने की शक्ति प्रकट हो, ऐसी प्रभु से प्रार्थना करूँ ।' प्रत्येक विशेषण की आवश्यकता : केवली : यहाँ अरिहंत की स्तवना करनी है, अतः छद्मस्थरूप में रहे हुए अरिहंत की कटौती करने केवली विशेषण का प्रयोग हुआ है। जिससे राज्यादि अवस्था में रहे अरिहंत का ग्रहण नहीं होता। जिज्ञासा : भगवान को केवली कहने से वे लोकालोक प्रकाशक हैं, यह बात समझी जा सकती है तो फिर ‘लोगस्स उज्जोअगरे' कहकर प्रभु लोक के उद्योतकर हैं, ऐसा कहने की क्या जरुरत थी ? क्या यह विशेषण निरर्थक नहीं है ? तृप्ति : नहीं । यह विशेषण निरर्थक नहीं है, क्योंकि भगवान को लोकप्रकाशक कहने से ज्ञान-अद्वैतवादी का मत गलत है, ऐसा सिद्ध होता है । ज्ञानाद्वैतवादी मानते हैं कि जगत् मात्र ज्ञानरूप ही है । ज्ञान के सिवाय जगत् में कोई अन्य तत्त्व है ही नहीं, जो दिखाई देता है, वह सब माया है। प्रकाश्यरूप लोक और प्रकाशक ज्ञान यह दो भिन्न हैं, अद्वैतवादी को यह 3. विशेषण का ग्रहण तीन स्थानों में सफल होता है । (१) उभयपद के व्यभिचार में जैसे कि नीला कमल (२) एक पद के व्यभिचार में जैसे कि पानी द्रव्य, पृथ्वी द्रव्य और (३) स्वरूप बताने में जैसे कि प्रदेश रहित परमाणु ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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