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________________ १९२ सूत्र संवेदना इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है कि, 'मेरे प्रभु ने महान उपकार करके मुझे समग्र विश्व के वास्तविक स्वरूप का दर्शन करवाया; परन्तु उल्लू जैसी दृष्टिवाले मैंने उसे देखने का यत्न भी नहीं किया । उसी कारण मैं आज तक इधर-उधर भटक रहा हूँ । प्रभु ! आपने जिस मार्ग को प्रकाशित किया उसे देखने की क्षमता अब मुझे प्रदान कीजिए !' धम्मतित्थयरे : धर्मरूपी तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले (परमात्मा का मैं कीर्तन करूँगा)। दुर्गति में गिरते हुए जीवों को जो धारण करने का कार्य करता है, उसे धर्म कहते हैं और संसार सागर से जो पार उतारे वह तीर्थ है । भगवान धर्मरूपी तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले हैं । तीर्थ दो प्रकार के होते हैं । जिसके द्वारा नदी, तालाब या समुद्र में उतरा जा सके या उसे पार किया जा सके वैसी सीढ़ियाँ, नाव या घाट वगैरह द्रव्यतीर्थ कहलाते हैं और जिसके द्वारा संसार सागर को पार किया जाए, वह भावतीर्थ कहलाता है । ___ समुद्र में गिरे हुए जीव को कोई लकड़ी या नाव मिल जाए और वह उसे पकड़ ले, तो समुद्र में गिरा हुआ जीव भी समुद्र को पार कर सकता है । उसी प्रकार भवसमुद्र में गिरा हुआ जीव भी श्रुतरूप भावतीर्थ का आलंबन लेकर संसार सागर को पार कर सकता है । भावतीर्थ स्वरूप श्रुतधर्म का प्रवर्तन करवानेवाले होने से ही यहाँ परमात्मा को धर्म तीर्थंकर कहा गया है अर्थात् श्रुतधर्मरूपी तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले कहे गए हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद परमात्मा देशना देते हैं । यह प्रवचन (देशना) श्रुतधर्म है । यह श्रुत भावतीर्थ है । गणधर पद के योग्य महाबुद्धिनिधान आत्माओं को परमात्मा 'उप्पनेइ वा - विगमेइ वा - धुवेइ
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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