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________________ १५४ सूत्र संवेदना प्रतिक्रमण नाम के दो प्रायश्चित्त संपन्न होते हैं । इन दोनों प्रायश्चित्तों से आत्मा निर्मल बनती है । फिर भी कई अतिचार ऐसे होते हैं कि उनकी शुद्धि करने के लिए विशेष क्रिया करनी पड़ती है, इस क्रिया को उत्तरीकरण कहते हैं । इस उत्तरीकरण के अध्यवसायपूर्वक कायोत्सर्ग नाम के पाँचवें प्रायश्चित्त से विशेष आत्मशुद्धि करने के लिए यह सूत्र बोला जाता है । इसी कारण इस सूत्र का नाम उत्तरीकरण सूत्र है । इस सूत्र का मुख्य विषय उत्तरीकरण है; जिसमें 'करण' याने अध्यवसाय-मन का एक विशिष्ट भाव । पाप का नाश करने के लिए उत्तरीकरण से कायोत्सर्ग किया जाता है । वह उत्तरीकरण प्रायश्चित्तकरण से होता है और प्रायश्चित्तकरण विशोधिकरण से होता है एवं विशोधिकरण विशल्यीकरण से होता है । इस तरह ( १ ) प्रायश्चित्तकरण, (२) विशोधिकरण एवं (३) विशल्यीकरण । इन तीन उपायों से उत्तरीकरण हो सकता है । इरियावहिया करने के बाद भी जो अशुभ भाव रह गये हों, उन्हें सूक्ष्म बुद्धि से विचार करने के बाद नाश करना है । इस नाश का उपाय कायोत्सर्ग है । इस सूत्र को बोलकर इस तरह कायोत्सर्ग करना है कि दुष्कृत के परिणाम सर्वथा निर्मूल हो जाए एवं व्रत के परिणाम स्थिर हों । इसलिए पापनाश के उपायभूत कायोत्सर्ग को ध्यान में रखकर यह सूत्र चार भागों में बांटा गया है । १५ १. अनुसंधान दर्शक, २. कायोत्सर्ग का हेतु ( उपाय), ३. कायोत्सर्ग का प्रयोजन, ४. कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा । ६. तप अर्थात् आयंबिल वगैरह तप करना, ७. छेद अर्थात् दीक्षादि पर्याय का अमुक प्रमाण में छेद करना, ८. मूल अर्थात् मूल से दुबारा व्रत उच्चरना, ९. अनवस्थान अर्थात् अमुक तप पूर्ण न हो तब तक दुबारविद्ध न देना, १०. पारांचित अर्थात् सर्व प्रायश्चितों से अधिक आचार्य को दिया जानेवाला प्रायश्चित्त, जिसमें ६ मास से लेकर बारह वर्ष तक अव्यक्तरूप से अज्ञात प्रदेश में विचरने के बाद व्रत देना ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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