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________________ १३२ सूत्र संवेदना इरियावहिया किए बिना अगर स्वाध्याय या ध्यान आदि किया जाए, तो वह क्रिया विशेष फलदायक नहीं बनती, क्योंकि जब तक मन अशुभ योग या विचारों में प्रवृत्त रहेगा, तब तक क्रिया यथार्थ नहीं होगी । जब इरियावहिया कर दूसरी क्रिया शुरु करते हैं, तब पूर्व के अशुभ विचारों का नाश हो जाता है, जिससे साधक स्वाध्याय, ध्यान आदि में विशिष्ट कर्मनिर्जरा कर सकता है । संक्षेप में छोटे से छोटे जीव की विराधना या छोटे से छोटा अशुभ विचार भी साधक को वास्तविक धर्म से दूर कर देता है । इसलिए कोई भी धर्म क्रिया करने से पहले इन सब की क्षमायाचना अवश्य करनी चाहिए एवं जिन पापों का प्रतिक्रमण किया हो, वह पाप पुनः न हों इसकी अत्यंत सावधानी रखनी चाहिए । यही इस सूत्र का सार है । इस सूत्र का एक एक पद अगर ध्यान से उपयोगपूर्वक बोला जाय, तो किए हुए पापों के प्रति घृणा की वृद्धि होती है । पाप के प्रति जुगुप्सा बढ़ने से संवेग भाव की वृद्धि होती है एवं संवेग भाव बढ़ते-बढ़ते अईमुत्ता मुनि की तरह केवलज्ञान का कारण बन सकता है । __ आवश्यक सूत्र की नियुक्ति तथा उसकी हारिभद्रीय वृत्ति के चौथे प्रतिक्रमण अध्ययन में यह सूत्र और उसके अर्थ प्राप्त होते हैं । हमने उसके तथा योगशास्त्र, धर्मसंग्रह, वृन्दारूवृत्ति के आधार पर यहाँ अर्थ किए हैं । मूल सूत्र : इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं । इच्छामि पडिक्रमिउं । ईरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे । पाण-क्कमणे, बीय-कमणे, हरिय-क्कमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मक्कडा-संताणा-संकमणे ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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