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________________ १३० सूत्र संवेदना एक भी जीव के साथ जब तक चित्त में संक्लेश का परिणाम हो, तब तक धर्म- क्रिया में चित्त की प्रसन्नता नहीं आती, चित्त की प्रसन्नता के बिना किया गया धर्म वास्तव में धर्म ही नहीं होता । “शास्त्र में कहा गया है कि, जिस व्यक्ति का चित्त मैत्री आदि भावों से सुवासित नहीं है, उस व्यक्ति में दूसरों को सुखी करने की भावना नहीं होती और जिसमें दूसरों को सुखी करने की भावना न हो, वह स्वयं कभी सुखी नहीं हो सकता ।” इसलिए, आत्मिक सुख को पाने की इच्छावालों को सर्वप्रथम जीव हिंसादि से होनेवाले अमैत्रीभाव से बचना चाहिए । जीव मात्र का सन्मान करना चाहिए, किसी का अपमान हो या किसी को पीडा हो, वैसा व्यवहार मन-वचन-काया से नहीं ही करना चाहिए एवं कभी किसी समय कषाय के कारण, जल्दबाजी से या अनाभोग से (अविचारित प्रवृत्ति से) किसी को लेश मात्र भी दु:ख हुआ हो, तो उसकी इस सूत्र द्वारा हार्दिक क्षमापना करनी चाहिए । इसी कारण से धर्म क्रिया की शुरूआत करने से पहले, जीव के प्रति मैत्री भाव बनाये रखना एवं दुष्कृत्यों से कलुषित बनी आत्मा को प्रतिक्रमण द्वारा निर्मल बनाने के लिए इरियावहिया करने की खास विधि बताई गई है। जैसे जीवहिंसादि ईर्यापथ की विराधना है, वैसे कोई भी साध्वाचार का उल्लंघन ईर्यापथ की ही विराधना है । इसलिए साधक को संपूर्ण साध्वाचार या श्रावकाचार को स्मृति में लाकर साध्वाचार या श्रावकाचार संबंधी विराधनाओं का भी इस सूत्र द्वारा प्रतिक्रमण करने के बाद ही धर्मक्रिया का प्रारंभ करना चाहिए । कई बार दोष दिखाई न देता हो, तो भी भविष्य में आत्मा में पड़े हुए कुसंस्कार जागृत न हो जाए और उन कुसंस्कारों से दोषों का सेवन न हो जाए, इसलिए भी सामायिक, चैत्यवंदन आदि क्रिया का आरंभ करने से पहले यह
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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