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________________ १२८ सूत्र संवेदना अहमवि खामि तुम्हं, (जं किंचि अपत्तियं परपत्तिअं अविणया सारिया वारिया चोइया पडिचोइया तस्स मिच्छा मि दुक्कडं) हे वत्स ! मैं भी तुझे खमाता हूँ । तुम्हें अविनय से रोकते हुए, तुम्हारे दोषों का स्मरण करवाते हुए, तुम्हें अतिचारों से रोकते हुए, प्रमाद नहीं करने की प्रेरणा देते हुए एवं करने योग्य कार्यों की बार-बार प्रेरणा करते हुए मैंने जो कोई अप्रीति तथा विशेष अप्रीति उपजाई हो, तो उन संबंधी मेरा सर्व दुष्कृत मिथ्या हो, मेरे द्वारा तुम्हें कोई कठोर आदि भाषा में अप्रीतिकर शब्द कहे गए हों, तो मेरा भी 'मिच्छा मि दुक्कडं' ! कैसा अद्भुत है यह जिनशासन ! जहाँ गुरु भी शिष्य से क्षमा माँगते हैं । पंचांग प्रणिपातरूप प्रथम सूत्र द्वारा गुरु के प्रति विशेष प्रकार से विनय बताया, इच्छकार सूत्र द्वारा संयमी आत्मा के शरीर आदि की सुखाकारी की पृच्छा की गई तथा विशेष बहुमानभाव व्यक्त किया गया एवं इस अब्भुट्टिओ सूत्र द्वारा गुरु के प्रति हुए अपराधों की क्षमापना की गई है । इस प्रकार तीन प्रकार के गुरुवंदन में थोभवंदन में उपयोगी तीन सूत्रों का अर्थ समाप्त हुआ । द्वादशार्वत वंदन में उपयोगी बननेवाले 'वांदणा सूत्र' के अर्थ सूत्र संवेदना - ३ में है ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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