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________________ १२२ सूत्र संवेदना उपयोग हो गया है । हे कृपालु ! इस तरह मैं कई बार आप की अप्रसन्नता का निमित्त बना हूँ । यह मुझसे गलत हुआ है। ऐसा करके मैंने अपने अहित को आमंत्रण दिया है । आपके प्रति हुए मेरे इन सब अपराधों को याद करके दुःखार्द्र हृदय से मैं आप से माफी माँगता हूँ ।” । इस प्रकार 'भत्ते पाणे' आदि अप्रीति या विशेष अप्रीति के स्थान बताकर शिष्य उन संबंधी अपराधों की क्षमापना करता है । अब दूसरे प्रकार का अपराध बताते हैं । जं किंचि मज्झ विणय-परिहीणं : मुझसे जो कोई विनय रहित कार्य हुआ हो । विविध प्रसंगों में कोई भी अपराध हुआ हो, उनको बताने के लिए ‘विणय-परिहिणं' शब्द का प्रयोग किया गया है । इससे ‘विनयरहित व्यवहार द्वारा मुझसे जो कोई भी अपराध हुआ हो, ऐसा अर्थ करना है । सुहुमं वा बायरं वा : सूक्ष्म या बादर । गुरु के प्रति सूक्ष्म अथवा बादर कोई भी अपराध हुआ हो, तो उसके लिए मैं क्षमा माँगता हूँ । सूक्ष्म अर्थात् छोटा अपराध; यह अपराध अल्प प्रायश्चित्त से शुद्ध हो सकता है एवं बादर अर्थात् बड़ा अपराध; यह अपराध बड़े प्रायश्चित्त से शुद्ध हो सकता है । पाप छोटा हो या बड़ा वह बाह्य व्यवहार से निश्चित्त नहीं होता । कई बार बाहर से बहुत छोटा दिखाई देनेवाला पाप भी गीतार्थ भगवंतों की दृष्टि में बहुत बड़ा होता है । जैसे कि सिद्धसेन दिवाकरसूरीश्वरजी महाराज की शास्त्रों का संस्कृत में परिवर्तन करने की भावना यह पाप बाह्य दृष्टि से बड़ा न होते हुए भी गीतार्थ गुरु भगवंत की दृष्टि में बड़ा पाप था इसलिए उन्हें बड़ा प्रायश्चित्त दिया एवं अईमुत्ता मुनि द्वारा की हुई पानी की विराधना
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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