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________________ लकड़ी से खूब प्रहार किया जाय तो वह मनुष्य अत्यंत वेदना से पीड़ित होता है। लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सकता। उसी प्रकार पृथ्वी, पानी वगैरह के जीवों को उससे कई गुणा अधिक वेदना अपने स्पर्श मात्र से होती है। लेकिन व्यक्त करने का साधन न होने से वे उन्हें व्यक्त नहीं कर सकते। B. जीवन में आचरने योग्य जयणा की समझा हम जैसे पैसों को संभालकर उपयोग में लेते हैं, जितने चाहिए उसी प्रमाण में व्यय करते हैं तो पैसों की संभाल या जयणा की गई कहलाती है। तो इस प्रकार हमें स्थावर जीवों की भी जयणा करनी चाहिए। चलते फिरते जीवों की रक्षा करने का तो सब धर्मों में कहा गया है परंतु जैन धर्म का जीव-विज्ञान अलौकिक है। इसके प्ररूपक केवलज्ञानी-वीतराग प्रभु हैं। उन्होंने मनुष्य में जैसी आत्मा है वैसी ही आत्मा पशु, पक्षी, मक्खी, चींटी, मच्छर, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति वगैरह 563 जीव भेदों में बतायी है। जयणा का उद्देश्य जैसे कपड़े का बड़ा व्यापारी सबको कपड़े पहुँचाता है, फिर भी सबको कपड़े पहुँचाने का अभिमान अथवा उपकार करने का गर्व नहीं करता, क्योंकि उसका उद्देश्य लोगों को कपड़े पहुँचाने का नहीं लेकिन पैसा कमाने का ही होता है। उसी प्रकार हम जीवों को बचाएँ, जीवों की जयणा का पालन करें तो हम जीवों पर उपकार नहीं करते बल्कि अपने ही अहिंसा गुण की सिद्धि के लिए करते हैं। जयणा का फल जयणा का पालन करने से रोग वगैरह नहीं होते हैं। सुख मिलता है, शाता मिलती है, आरोग्य मिलता है, समृद्धि मिलती है। आत्मभूमि के कोमल बनने से गुणप्राप्ति की योग्यता आती है, जिससे क्रमशः: आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति सरलता से होती है। प्रश्न: स्थावर में जीव प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखते, इसलिए उन्हें बचाने का उत्साह हमें किस प्रकार जगाना चाहिए? उत्तर: जिस प्रकार जब हम क्रिकेट प्रत्यक्ष नहीं देखते हैं, फिर भी कॉमेन्ट्री सुनकर उसे सत्य मानकर आनंद लेते हैं, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवंतों ने इन जीवों को एवं उनकी वेदना को साक्षात् देखी है और उसकी कॉमेन्ट्री दी है। संसार के चलते-फिरते मनुष्य पर विश्वास रखने वले, हमें यदि परमात्मा पर विश्वास आ जाए तो हमारे जीवन में स्थावर जीवों की भी जयणा का वेग आ सकता है। जयणा को प्राधान्य देकर हम प्रत्येक कार्य कर सकते हैं। बाकी भगवान तो कहते हैं कि 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' यदि तुम्हें दुःख पसंद नहीं है तो किसी को भी दुःख हो, वैसी प्रवृत्ति भी नहीं करनी चाहिए। :59
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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