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________________ संध्यायां यक्षरक्षोभिः, सदा भुक्तं कुलोद्वह। सर्ववेलां व्यतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ।। यजुर्वेद आह्निक श्लोक 24-19 ये युधिष्ठिर ! हमेशा देवगण दिन के प्रथम प्रहर में भोजन करते हैं। ऋषिमुनि आदि दिन के दूसरे प्रहर में भोजन करते हैं। पिता लोग दिन के तीसरे प्रहर में भोजन करते हैं। और दैत्य-दानव, यक्ष और राक्षस शाम के समय भोजन करते हैं। इन देवों के भोजन के समय को छोड़कर जो रात्रिभोजन करते हैं वह भोजन, अभोजन के बराबर है। यानि खराब भोजन है। नक्तं न भोजयेद्यस्तु, चातुर्मास्ये विशेषतः । सर्वकामानवाप्नोति, इहलोके परत्र च ॥ ___ - योगवाशिष्ठ पूर्वार्धे श्लो. 108 जो आत्मा हमेशा रात्रिभोजन नहीं करती है और चौमासे में विशेष प्रकार से रात्रिभोजन का त्याग करती है उस आत्मा के इस भव और दूसरे भव के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। सामान्य दिन में पाप नहीं करना और चौमासा में विशेष पाप का त्याग करना और आराधना करना ऐसा अन्य दर्शन भी बताते हैं। जैन दर्शन बताता है कि, चातुर्मास के समय में विशेष जीवों की उत्पत्ति होती है, इसलिए चौमासे में विशेष अभिग्रह ग्रहण करना चाहिए। यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं, कृत्स्नां चैव वसुंधराम्। एकस्य जीवितं दद्यात्, न च तुल्यं युधिष्ठिर।। - महाभारत हे युधिष्ठेिर ! एक मनुष्य सोने का पर्वत या संपूर्ण पृथ्वी का दान करे और दूसरा मनुष्य मात्र एक प्राणी को जीवन दान दे तो इन दोनों की तुलना हम नहीं कर सकते बल्कि देखा जाय तो अभयदान बढ़ जाता है। अहिंसा का फल : दीर्घमायुः परं रुप-, मारोग्यं श्लाघनीयता। अहिंसायाः फलं सर्वं, किमन्यत् कामदैव सा।। -योगशास्त्र प्र. 2/52 अर्थात् दीर्घ आयुष्य, श्रेष्ठ रुप आरोग्य और प्रशंसनीयता यह सब अहिंसा का फल है। ज्यादा क्या कह सकते हैं? मनोवांछित फल देने के लिए अहिंसा कामधेनु के समान है। ___D. रात्रिभोजन - डॉक्टर - वैद्यों की दृष्टि से : ये प्राचीन पंक्तियों तो सबको याद ही रहेगी कि.. पेट को नरम, पांव को गरम, सिर को रखो ठंडा। फिर जब आवे डॉक्टर, तब उसको मारो डंडा।। 47
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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