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________________ सुनाया। और अंत में कहा कि 'लघुकर्मी यह महापुरूष इसी भव में मुक्ति पायेगा और यह बालक भी राज्य पर बड़ा उपकार करनेवाला होगा।' ऐसा कहकर नागराज धरणेन्द्र ने अपने गले का हार निकालकर नागकेतु को पहनाया और अपने स्थान पर लौट गया। व्याख्यानकार आचार्य श्री लक्ष्मीसूरिजी ने इस कारण से ही ऐसा कहा है कि 'श्री नागकेतु ने उसी भव में अट्ठम तप का प्रत्यक्ष रूप पाया।' बड़ा होकर नागकेतु परम श्रावक बना। एक बार राजा विजयसेन ने कोई एक मनुष्य जो वाकई में चोर न था उसे चोर ठहराकर मार डाला। इस प्रकार अपमृत्यु पाया हुआ वह व्यक्ति मरकर व्यंतर देव बना। वह व्यंतर बना तो उसे ख्याल आया कि अमुक नगरी के राजा ने मेरे सिर पर चोरी का झूठा कलंक लगाकर मुझे मार डलवाया था, जिससे उस व्यंतर को उस राज्य पर बहुत गुस्सा आया। उस राजा को उसकी पूरी नगरी सहित साफ कर देने का निर्णय किया। इसलिये उस राजा को लात मारकर सिंहासन पर से गिरा दिया औरा खून वमन करता बना दिया । तत्पश्चात् नगरी का नाश कर डाले ऐसी एक शिला आकाश में रच दी। आकाश में बनी बड़ी शिला को देखकर नगरजन बड़ी घबराहट में गिर पड़े। श्री नागकेतु को चिंता हुई कि, "यह शिला यदि नगरी पर गिरेगी तो महा अनर्थ होगा। नगरी के साथ जिनमंदिर भी साफ हो जायेगा। मैं जीवित होऊँ और श्री संघ के श्री जिन मंदिर का विध्वंस हो जावे यह कैसे देख सकूँ ?' ऐसी चिंता होने से श्री नागकेतु जिनप्रासाद के शिखर पर चढ़ गया और आकाश में रही शिला की ओर हाथ किया। श्री नागकेतु के हाथ में कितना बल हो सकता हैं? परंतु वह ताकत उनके हाथ की न थी, वह ताकत उनके प्रबल पुण्योदय की थी। उन्होंने जो तप किया था उस तप ने उनको ऐसी शक्ति का स्वामी बना दिया था कि उनकी इस शक्ति को वह व्यंतर सहन न कर सका। इसलिए व्यंतर ने तुरंत अपनी रची हुई शिला को स्वयं ही समेट लिया और आकर नागकेतु के चरणों में गिर पड़ा। श्री नागकेतु के कहने से उस व्यंतर ने राजा को भी निरूपद्रव किया । एक बार श्री नागकेतु भगवान की पूजा कर रहे थे और पुष्प से भरी पूजा की थाली अपने हाथ में थी। उसमें एक फूल में रहे सर्प ने उन्हें काटा। सर्प के काटने पर भी नागकेतु जरा से भी व्यग्र न हुए। परंतु सर्प काटा है यह जानकर ध्यानारूढ बने। ऐसे ध्यानारूढ बने कि क्षपक श्रेणी में पहुँचे और उन्होंने केवलज्ञान पाया। उस समय शासनदेवी ने आकर उन्हें मुनिवेष अर्पण किया और उस वेष को धरकर केवलज्ञानी नागकेतु मुनिश्वर विहरने लगे। कालानुसार आयुष्य पूर्ण होते ही वे मोक्ष पधारे। C. श्री संप्रति महाराजा सम्राट अशोक के समय की बात है। एक दोपहर के समय साधू सब गोचरी के लिये निकले थे। गोचरी लेकर वे पास लौट रहे थे, तो उनको एक भिखारी मिला। उसने कहा, 'आपके पास भिक्षा है तो थोड़ा भोजन मुझे दो। मैं भूखा हूँ। भूख से मर रहा हूँ।' उस समय साधू ने वात्सल्यभाव से कहा, 'भाई ! इस भिक्षा में से हम तुझे कुछ भी नहीं 107
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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