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________________ जैन तत्त्व दर्शन 9. मुद्रा त्रिक: (1) योग मुद्रा - दोनों हाथ को कमल की नाल के समान एकत्रित कर कोहनी से पेट को स्पर्श करना एवं अंगुली को एक दूसरे के अंदर लगाना । चैत्यवंदन इस मुद्रा में बोलना चाहिए। (2) जिन मुद्रा - काउस्सग्ग के समय दो पैर के बीच आगे से चार अंगुल एवं पीछे चार अंगुल में कुछ कम जगह छोड़े तथा हाथ को लटकते हुए स्थिर रखना। (3) मुक्तासुक्ति मुद्रा-छीपकी तरह हथेली को चौडी करदो हाथ जोडकर ललाट पर लगाना | इस मुद्रा से जावंति-जावंत एवं जयवीयराय सूत्र की प्रथम दो गाथा बोली जाती है। 10. प्रणिधान त्रिक: मन-वचन-काया की एकाग्रता रखना। __E. पूजा संबंधी उपयोग 1) फणा को प्रभु का शिखा रूप अंग समझकर शिखा पूजा के साथ ही अनामिका अंगुली से पूजा करना उचित है अथवा पूजा न करे तो भी चलेगा। 2) लांछन की एवं अष्ट मंगल की पूजा नहीं करना एवं परमात्मा के परिकर में रहे हुए देवी-देवता की भी पूजा न करें। 3) सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद भी अरिहंत की पूजा कर सकते हैं। 4) गौतमस्वामीजी की पूजा अनामिका अंगुली से ही करे। 5) देवी-देवता अपने साधर्मिक होनेसे उनकी अंगूठे से पूजा कर प्रणाम करें। परंतु वंदन ना करें। 6) मुखकोश बाहर ही नाक तक बांधकर फिर निसीहि बोलकर गंभारे में प्रवेश करें। भाइयों को परमात्मा की पूजा धोती एवं खेस पहनकर, खेस से ही मुख बांधकर पूजा करनी और 16 वर्ष के उपर की बहनें साड़ी पहनकर सिर ढककरही पूजा करें। 8) पुरुष परमात्मा के दांयी (Right Side) तरफ और स्त्री बांयी (Left Side) तरफ खड़े रहकर स्तुति, दर्शन पूजा आदिकरें। 9) गंभारे या मंदिर से निकलते समय प्रभु को पीठ न पड़े, उसका ध्यान रखते हुए उल्टे पैर बाहर निकले। 10) गंभारे में मौन रहे, दोहे मन में बोले, स्तवन एवं स्तुति अकेले बोले तो धीरे बोले। 11) प्रभु के विनय हेतु फल-फूल आदि पूजन सामग्री मंदिर में लेकर जाना, खाली हाथ नहीं जाना | लेकिन अपने खाने की वस्तु लेकर नहीं जाना । 7) 28
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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