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________________ हे प्रभु आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये। लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें ।।6।। c. श्री पंच परमेष्ठि जिन चैत्यवंदन बार गुण अरिहंत देव, प्रणमीजे भावे, सिद्ध आठ गुण समरतां दु:ख दोहग जावे ॥1 || आचारज गुण छत्रीश, पचवीस उवज्झाय, सत्तावीस गुण साधुना, जपतां शिवसुख थाय || 2 || अष्टोत्तर शत गुण मलीए, एम समरो नवकार, धीर विमल पंडित तणो, नय प्रणमे नित सार ।। 3 ।। D. श्री सामान्य जिन स्तवन क्युं कर भक्ति करूं, प्रभु तेरी...... क्रोध लोभ मद मान विषय रस, छांडत गेल न मेरी कर्म नचावत तिमहि नाचत, माया वश नट चेरी दृष्टि राग दृढ बंधन बांध्यो, नीकसन न लहे सेरी करत प्रशंसा सब मिल अपनी, परनिंदा अधिकेरी कहत मान जिन भाव भगति बिन, शिवगति होत न मेरी क्यु ।। 1 ।। क्यु ।। 2 ।। क्युं ।। 3 ।। क्यु ।। 4 ।। क्युं ।। 5 ।। E. श्री पंच परमेष्ठि जिन स्तुति अरिहंत नमो, वली सिद्ध नमो. आचारज वाचक साधु नमो, दर्शन ज्ञान चारित्र नमो, तप ओ सिद्धचक्र सदा प्रणमो ।
SR No.006116
Book TitleJain Tattva Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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