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________________ મેં આ ગ્રંથ બે વાર વા છતાં હું ઘર નહીં મને તૃપ્તિ ન થઈ. આપશ્રીની આ રચના, ખરેખર ! મુમુક્ષુ જગતને એક અનુપમ–અદ્વિતીય ભેટ છે. આજના આ મહાન કલાહલ ભરપૂર, અશાન્તિપૂર્ણ વાતાવરણમાં આવા તત્વજ્ઞાનથી ભરપૂર એવા આ ગ્રંથના વાંચનથી મને તે ખૂબજ આનંદ મળે. -: भूतल पत्र-हिन्दीमा :पवित्र सेवामें...विनीत निवेदन यह हैं कि आपश्रीद्वारा रचित पुस्तक 'मण भगवान महावीर १ थी २६ भव' नथ आज दस (१०) वर्ष बाद सौभाग्यवश मूझे देखने को प्राप्त हुआ। बास्तवमें ही आपश्री की यह रचना मगवान की भव पर पर। के माध्यमसे जिनवाणो के गूढ रहस्यों पर बडे ही सरल एब जीवन व्यावहारिक तरीके प्रकाश डालती है । यानि इसका तत्त्वज्ञानका भण्डार कहा जाए तो काई अत्युक्ति नहीं। इसके अध्ययनसे अनेक सा गर्भित तथ्योंकी जानकारी हुई। समालोचना भी भगवान के त्रिपष्ठ वासुदेवके भवके पिताजी एवं स्वपिता पाणिगहोत माताजीकी बडे सुन्दर ढगशे की गई है । पिता भी बेभानरुपेण मोहासक्त हो गये और बेदी मी उसम कुलाचारका ऊलधन कर गई । इसके अतिरिक्त तात्त्विक रहस्योंकी तो यह ग्रंथ रत्नकुची हैं । जैसे अंतराय कम ना वास्तविक भावार्थ मोहनीय कर्म ना उपशम-क्षयोपशम-क्षयादि हैं। तीर्थ कर नांमकर्म के अंतर्गत गणघर, आचार्य, उपाधया
SR No.006027
Book TitleBhagwan Mahavirna 26 Bhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohan Granthmala
Publication Year
Total Pages456
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size8 MB
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