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________________ १४४ संयम तरंग देत सब जगकुंजीपे ॥ ए०॥ आना जाना एकही कालें, एक विना रहे नगर विचालें ॥ ए० ॥२॥ एक दरवगत नित्य अनित्ये, चटपट नाव वसे सब चित्तें ॥ ए॥ जिन दिन सघलो खोज गमावे, तो निधिचारित्र ज्ञान निपावे ॥ ए० ॥ ३ ॥ इति ॥ ॥पद अढारमुं॥ ॥ राग वरुवा ॥गुरुगम अनुनव शैली धारो, इस पदका निर्वाह विचारो ॥ गु०॥ टेक ॥ सरव समय रवि रुचिकर हीना, विविध स्वापदयुत गहन वि. लीना ॥गु॥१॥ काला मिरगा निज बल वन राजा, नितप्रति राज अखंड समाजा ॥ मु०॥ निर्दय निज वैरीगण मारे, मास विना न नखे खिन सारे॥ गु॥२॥ चक्री हरिबल परमुख जोधा, पिण मिरगा नवि वस किया सोधा ॥गुण॥ तेहने पिन मिरग खिन नख कीधा, कुन समरथ वस करने सीधा ॥ गुण॥३॥ श्रमर बिरुद दरवें जग धारे, मरन जीवन नवि बेहुं सारे ॥ गु० ॥ गदिन दरिथी नपुंसक जायो, अनंतवली पिण नहिं तोलायो ॥ गु०॥ ॥४॥ एकहि घातें मिरगने मास्यो, कंठी रवनो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005365
Book TitleVairagyopadeshak Vividh Pad Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1904
Total Pages164
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
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