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________________ (३१) भरी मजलिसमें-मुझे यह कहना सत्यके कारण अवश्य हुवा है कि जैनोंका ग्रथसमुदाय सारस्वत महासागर है. उस्की यसंख्या इतनी अधिक है कि-उन ग्रंथोंका मृचिपत्रभी एक महानिबंध हो जायगा. और उस पुस्तकसमुदायका-लेख, और लेख्य, कैसा गंभीर, युक्तिपूण, भावपूरित, विशद, और अगाध है-इसके विषयमें इतनाही कहना उचित हैकि निनोने सारस्वत समुद्र में अपने मतिमंथानको डाल कर चिरान्दोलन किया है वेही जानते है. जनदर्शन वेदांतादिदशनों से भी पूर्वका है तब ही तो भगवान् वेदव्यास महर्षि ब्रह्मसूत्रमें कहते है. 'नैकस्मिन्नऽसंभवात्' वेदव्यासके समय पर जनमत था तब तो खंडनार्थ उद्योग किया गया. यदि नहीं था तो खंडन कैसा और किसका ? वेदोमें अनेकांतवादका मूल मिलता है, वेदांतादिकदर्शनशास्त्रोका और जनादिदशनोंका कौन मूल है यह कह कर सुनाता हूं-उच्चश्रेणिके बुद्धिमान् लोगोके मानसनिगूढ विचार ही दशन है. जैसे अजातवाद, विवर्त्तवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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