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________________ (९६) धर्मन उत्पन्न थया, अने ते बधामां तात्त्विकविज्ञान, कर्मकांडपणु, भक्ति अने वैराग्य आदि बधाए विभागो अवश्य तरीके जोवामां आवे छे. आ बघाए पन्थोनी वृद्धि थएथी उपर कहेला अनार्यधर्मो शिवाय ख्रिस्ती अने मुसलमानी धर्मोनो पण तेना उपर असर थवानुं संभवित छे. अत्यारसुधीनुं विवेचन प्रस्तुत विषयना संबन्धथी केवल प्रस्ताविक तथा उपोद्घातना रूपन छे. हवे आगळ यूरोपियन पद्धतिथी एटले चिकित्सकपद्धतिथी जैनधर्मनो विचार करवानो छे. आ विवेचन कदाच कोईने शुष्क अने रसहीन लागशे पण तेमां अशास्त्रीय अगर पूर्वनी समजथी दूषित एवं कई पण देखाशे नहीं एवी मारी खात्री छे. ख्रिस्तीशकनी पूर्वे ८ मा शकमां ब्राह्मणोना कर्मकांडपणानो द्वेष करवा माटे आ देशमां शरु थएल धर्मविचारोमांथी जैनधर्म उत्पन्न थयो एम मानवानी साधारण प्रवृत्ति छे. ते वखते ब्राह्मणोना कर्मकांडमांनो कोई पण विधिविधान धर्मनामने छाजे एवो नहतो. जैनधर्मनी उत्पत्तिना संबन्धनो आ मत सामान्यथी यूरोपियन पण्डितोमा प्रचलित छे अने ओछावत्ता मतभेदथी जैनधर्मीलोको पण तेने मान्य • करे छे, परन्तु आ मतभेदतुं मूळ जैनसंप्रदायमा घणा प्राचीनका लथी जोवामां आवतुं होवाथीन जैनधर्मनी उत्पत्तिना संबन्धे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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