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________________ (२८) वे संप्रदायो थथा पछी तेना तत्त्वज्ञानमा बिलकुल फेरफार थयो . नहोतो-अर्थात् ते तद्दन स्थिरज रह्यं हतुं. आनुं प्रमाण मात्र एज छे के आ बन्ने संप्रदायोना तत्त्वज्ञानमां कोई विशेष उल्लेखयोग्य भेद नजरे पडतो नथी. आचारशास्त्रना विषयमा अलबत आ बन्ने संप्रदायोमा केटलाक भिन्न भिन्न विचारो जोवामां आवे छे, परंतु अत्यारे पण ज्यारे श्वेताम्बरोमां लांबा समयथी, तेमना वर्तमानसिद्धांतसमूहमां विहित थएला घणाक आचारोनुं पालन बंध थएलं होवा छतां पण तेओ तेना तरफ उपेक्षा धरावता नथी त्यारे तेवाज कारणने लईने ते वखते अस्तित्व भोगवता एवा तेमना पूर्वात्मकसिद्धांतसमूहना विषयमां श्वेताम्बरोए तेटला बधा आवेशमा आवी जई पोताना पूर्वसाहित्यनो सर्वथा त्याग सुधां करी नांख्यो हतो एम मानवं युक्तिसंगत जणातुं नथी. आ उपरांत नवासिद्धांतनो जे समय आपणे उपर निर्णीत को छे, ते समय पछी पण लांबा वखत सुधी पूर्वो विद्यमान हतां एम मानवामां आवे छे. परंतु आखरे ज्यारे पूर्वोना प्रवादमय साहित्य करतां नवा सिद्धान्त द्वारा जैनतत्त्वो वधारे स्पष्टरीते प्रकाशित थता देखावा लाग्यां अने वधारे व्यवस्थासर लोको समक्ष मूकावा लाग्यां त्यारे पूर्वो स्वाभाविक रीतेज, नहीं के तेमनी बुद्धिपूर्वक कराएली . उपेक्षाने लीधे अदृष्ट थयां हतां. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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